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55. आचार्य श्रीमद् हेमविमल सूरीश्वर जी
हेम-स्वर्ण सम सद्गुण प्रकाशक, आत्म विमल श्रृंगार।
हेमविमल सूरिराज गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ __ भगवान् महावीर स्वामी जी की 55वीं पाट पर श्री हेमविमल सूरि जी के समय में साध -समुदाय में पर्याप्त शिथिलता फैल गयी थी, फिर भी हेमविमल सूरि जी की निश्रा में रहने वाले साधु-साध्वी ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रहपन एवं शास्त्रानुसार आचार में सर्वप्रसिद्ध थे। इनका आचारसंपन्न जीवन चरित्र आदर्शरूप है। जन्म एवं दीक्षा :
इनका जन्म मारवाड़ के जीरावला तीर्थ के सन्निकट बड़नामा गांव में हुआ था। गंगाधर नाम के वणिक (बनिये) श्रावक की धर्मपत्नी गंगा देवी की रत्नकुक्षि से कार्तिक सुदि 5 को संवत् 1520 में एक पुत्ररत्न पैदा हुआ। माता-पिता-स्वजन आदि ने रीति अनुसार सूतक कर्म करके शिशु का नाम 'औधराज' रखा। अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर बालक धार्मिक विद्या एवं सांसारिक विद्या में पारंगत बना।
बालक की उम्र जब 8 वर्ष की थी, तब उस गाँव में विचरते-विचरते आचार्य विजय लक्ष्मीसागर सूरि जी महाराज पधारे। उनके मुख से जिनवाणी की सिंहगर्जना सुनकर अनेक भव्य जीवों ने धर्म का सन्मार्ग अपनाया। बालक औधराज भी नियमित रूप से उनके दर्शन कर ज्ञानार्जन करता था। गुरुदेव से संसार की असारता जानकर औधराज के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हुआ। पुत्र की दृढ़ता देख माता-पिता की आज्ञा से संवत् 1528 में विजय लक्ष्मीसागर सूरि जी की निश्रा में दीक्षा हुई एवं उसका नाम - ‘मुनि हेमधर्म' रखा गया तथा वे आचार्य सुमति साधु सूरि जी के शिष्य घोषित हुए। शासन प्रभावना :
आचार्य सुमति साधु सूरीश्वर जी ने उनकी योग्यता जानकर पंचालस गाँव में संघ महोत्सव करके संवत् 1548 में उन्हें आचार्य पद से विभूषित कर चतुर्विध-संघ के योग और क्षेम का दायित्व सौंपा। उनका नाम आचार्य हेमविमल सूरि रखा गया। विचरते-विचरते वे ईडर (मेवाड़)
महावीर पाट परम्परा
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