Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 298
________________ शनैः शनैः आचारांग आदि विशाल श्रुत साहित्य का अध्ययन करते जिनधर्म पर उनकी श्रद्धा प्रगाढ़ होती गई किंतु उन्हें नागरमल जी आदि स्थानकवासी संतों की जीवन शैली शास्त्रों के अनुरूप न लगी। उस समय पंजाब क्षेत्र में स्थानकमार्गी ऋषि एवं चैत्यवासी यति, ये दोनों ही जैनधर्म के त्यागीवर्ग में थे परन्तु संवेगी (तपागच्छ आदि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक) साधु जी का विहार न होने के कारण बूटेराय जी के सामने आगम-अनुकूल समाचारी पालन करने वाला कोई साधु-साध्वी न था। किंतु शास्त्राध्ययन से सत्य की पुष्टि बूटेराय जी को होती जा रही थी। मिथ्यामत विद्रोह के स्वर ऊँचे उठते जा रहे थे। बूटेराय जी की 'सत्यनिष्ठा से मूलचंद जी एवं वृद्धिचंद भी प्रभावित थे। एक बार उन तीनों का पदार्पण केसरिया जी तीर्थ पर हुआ जहाँ संघपति द्वारा उन्हें गुजरात की भव्य जिनमंदिर स्मारक संपदा एवं शुद्ध आचारवान् संवेगी साधु संपदा का ज्ञान हुआ। बूटेराय जी सुदेव-सुगुरु-सुधर्म की त्रिवेणी के प्रति अनुरक्त हो गए। वि.सं. 1908 में उन्होंने मुखपत्ती का डोरा तोड़ा। चैत्र सुदि 13, वि.सं. 1911 (ईस्वी सन् 1854) को वे पालीताणा तीर्थ पहुँचे। परमात्मा के दर्शन से उन्होंने जो अपार हर्ष का अनुभव किया, वह अवर्णनीय है। यहाँ भी कई पंडितों से ऋषि बूटेराय जी ने सम्यक् ज्ञान अर्जित किया। धीरे-धीरे संवेगी परम्परा के गुरु भगवंतों से उनका सामीप्य हुआ। अब उन्हें परम आनंद की अनुभूति हुई कि जिस सद्गुरु की खोज में इतने वर्षों से कर रहा था, वह आज पूरी हुई। वि.सं. 1912 (ईस्वी सन् 1855) में अहमदाबाद में मणि विजय जी के करकमलों से तपागच्छ की बड़ी संवेगी दीक्षा सम्पन्न हुई। बूटेराय जी मणि विजय जी के शिष्य बने एवं उनका नाम - मुनि बुद्धि विजय रखा गया। मूलचंद जी और वृद्धिचंद्र जी क्रमशः मुक्ति विजय जी एवं वृद्धिविजय जी के रूप में बुद्धि विजय जी के शिष्य बने। शासन प्रभावना : बुद्धि विजय जी परम त्यागी, शांत स्वभावी, स्वाध्याय रसिक एवं निरतिचार चारित्रपालक थे। संवेगी दीक्षा पश्चात् ज्ञानपिपासा को एकाकार देते हुए उन्होंने योगोह्वहनपूर्वक 45 आगमों का पंचांगी सहित (मूल, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि. टीका) अभ्यास पूर्ण किया। अहमदाबाद एवं भावनगर चातुर्मास करने के पश्चात् बुद्धिविजय जी ने ईस्वी सन् 1860 का चातुर्मास पाली (राजस्थान) में तथा 1861 का चातुर्मास दिल्ली में किया। तत्पश्चात् वे अपनी जन्मभूमि पंजाब पधारे। अपनी प्रतिबोधकुशलता के बल से अनेक श्रावक-श्राविकाओं महावीर पाट परम्परा 264

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