________________
वांचन की आज्ञा प्रदान की। इसी कारण साध्वी मृगावती श्री जी जैसी समर्थ साध्वी जी जन-जन में धर्मप्रचार की अग्रणी बनी। पंजाब प्रदेश में सौर (सूर्य की गणना अनुसार) मास परिवर्तन के कारण अनेक जैन हिन्दू मंदिरों-पंडितों के पास जाते थे। जैनों पर करुणा वर्षा कर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का विचार कर वि.सं. 1997 से गुजरावाला (पाकिस्तान) से प्रतिमास सूर्य संक्रांति के दिन संघ समक्ष महामांगलिक महोत्सव की शुरुआत की। भारत की स्वतंत्रता के समय उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों तथा निर्दोष-शुद्ध स्वदेशी खादी वस्त्रों का भरपूर समर्थन किया था।
भारत-पाक विभाजन के समय विजय वल्लभ सूरि जी का चातुर्मास गुजरावालां (पाकिस्तान) में था। भारत से नेमि सूरि जी आदि आचार्यों ने उन्हें सरकार द्वारा भिजवाए जा रहे अपवाद स्वरूप हवाई जहाज में बैठकर पुनः भारत लौटने का आग्रह किया किंतु गुरु वल्लभ ने यही कहा कि “जब तक एक भी जैन बच्चा यहाँ फंसा है, मैं अकेले भारत में नहीं आऊंगा।" यह गुरुदेव के पुण्य का ही प्रताप था कि सिख फौजियों की सहायता से गुरु वल्लभ न केवल सुरक्षित भारत आए बल्कि अनेक ट्रकों में सभी जैन भाई बहन, गुजरावाला का श्रुत साहित्य आदि भी साथ लेकर आए। यही नहीं, ऐसी त्रासदी से आर्थिक-सामाजिक-मानसिक रूप से पीड़ित मध्यम वर्ग के उत्थान के लिए समाज के धनकुबेरों को साधार्मिक वात्सल्य के सही अर्थ का उद्बोधन भी दिया।
गुरु वल्लभ की उपदेश शैली भी गजब थी। अपने साधु-साध्वी जी परिवार को घंटों तक आगम-शास्त्रों की तलस्पर्शी रहस्योद्घाटक गूढ वाचनाएं देते थे। एवं हिन्दुओं, मुस्लिमों, सिखों को भी सरल भाषा में जैनधर्म का मर्म समझाकर उन्हें परमात्मा से जोड़ने में सफल रहे। जहाँ सद्धर्म संरक्षण की बात थी, वहाँ उन्होंने अन्यों से शास्त्रार्थ भी किए एवं जहाँ आवश्यकता पड़ी, वहाँ अपनी गीतार्थ दृष्टि से सर्वधर्मसमभाव रखकर मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर कार्य किए।
कापरडाजी, पालीताणा, दिल्ली, अंबाला, हस्तिनापुर, बड़ौदा, रायकोट, मुंबई आदि अनेक स्थानों पर गुरुदेव के सदुपदेश से उपाश्रय - धर्मशालाएं निर्मित हुई। उनकी निश्रा में वि.सं. 1964 में दिल्ली से हस्तिनापुर, वि.सं. 1966 में राधनपर से पालीताणा वि.सं. 1976 में शिवगंज से केसरियाजी, वि. सं. 1980, 1997 में होशियारपुर से कांगड़ाजी आदि अनेक छ:री पालित संघ आयोजित हुए।
महावीर पाट परम्परा
276