Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 313
________________ 75. आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी वाक् शक्ति का सुनियोजन, मृदुभाषी सद्व्यवहार। गुरु समुद्र जिनशासनरत्न, नित् वन्दन बारम्बार॥ __ मौन साधना के अविरल साधक, जप-तप और संयम में अनुरक्त आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी चरमतीर्थपति भगवान् महावीर स्वामी जी की पावन परम्परा के 75वें पट्टाचार्य हुए। उनका व्यक्तित्त्व न केवल समुद्र सम गंभीर था, बल्कि अनन्त गुणरत्नों को आत्मसात् किए हुए था। जन्म एवं दीक्षा : राजस्थान के पाली शहर में श्री शोभाचंद जी बागरेचा के घर धर्मपरायणा पत्नी धारिणी की कुक्षि से मार्गशीर्ष शुक्ला 11 (मौन एकादशी) वि.सं. 1948 के दिन एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ। उसका नाम सुखराज रखा गया। सुखराज के बड़े भाई का नाम पुखराज और बड़ी बहन का नाम छोगादेवी था। - सुखराज के बालवय में ही उसकी माँ रूग्णावस्था के कारण चल बसी। उनका लालन पालन उनकी बहन-बहनोई के घर बड़ौदा में हुआ किंतु कुछ वर्ष बाद ही उनकी बहन भी काल के गर्भ में समा गई। पिता शोभाचंद जी भी देवलोकवासी हो गए। अपनी आँखों के सामने माता-पिता और बहन की करुण मृत्यु देखकर सुखराज का हृदय संसार की असारता के चिंतन में निमग्न रहता। वि.सं. 1966 में पालीताणा तीर्थ पर पंन्यास कमल विजय जी एवं मुनि मोहन विजय जी के उपदेश से सुखराज के मन में वैराग्य का बीज प्रस्फुटित हुआ। उसी वर्ष आ. वल्लभ सूरि जी म. का चातुर्मास बड़ौदा में हुआ। आचार्यश्री एवं मुनि सोहन विजय जी के आचार-विचार-व्यवहार से संयम का रंग सुखराज के मन पर चढ़ गया। फलस्वरूप फाल्गुन वदि 6, वि.सं. 1967 रविवार को सूरत के गोपीपुरा में 19 वर्षीय सुखराज की दीक्षा आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी की निश्रा में हुई। वे उपाध्याय सोहन विजय जी के शिष्य कहलाए एवं उनका नाम 'मुनि समुद्र विजय' महावीर पाट परम्परा 279

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