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76. आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी
ऊर्जाकेन्द्र गुरु इन्द्रदिन्न सूरि, परमारक्षत्रियोद्धार । चारित्र रत्न अहमिन्द्र धनी, नित् वन्दन बारम्बार ॥
करुणानिधान, शासनपति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी की परमोज्ज्वल पाट परम्परा के 76वें पट्टप्रभावक, गच्छाधिपति आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ने संयम साधना के अलौकिक सूर्य के रूप में जिनशासन की महती प्रभावना की एवं लाखों परमार क्षत्रियों को जैनधर्म से जोड़कर अपूर्व धर्मक्रांति का उद्योत किया।
जन्म एवं दीक्षा :
गुजरात की धर्मधरा पर बड़ौदा से पूर्वदिशा में परमार क्षत्रियों के सैकड़ों गाँव बसे हैं, जो कृषक (किसान), आदिवासी आदि के रूप में जीवन यापन करते हैं। सालपुरा गाँव में किसान रणछोड़भाई की धर्मपत्नी बालू बेन ने कार्तिक वदी 9, वि.सं. 1980 के दिन एकं पुत्ररत्न को जन्म दिया। सबके मन को मोहने वाले उस बालक का नाम 'मोहन' रखा गया।
पास के गाँव डूमा की प्राइमरी पाठशाला में बालक मोहन की प्रारंभिक शिक्षा हुई। वह कुशाग्रबुद्धि का धनी था। सालपुरा से 22 कि.मी. दूर डभोई में सिद्धि सूरि जी के शिष्य पंन्यास रंगविजय जी के सामीप्य से मोहन को जैनधर्म के सिद्धांतों का पंच प्रतिक्रमण, तीन भाष्य आदि भी कण्ठस्थ कर लिए।
बालक मोहन जब 11-12 साल का हो गया, तब लंबी बीमारी के कारण माँ दिव्य लोक सिधार गई। माँ के देहावसान का घाव अभी भरा नहीं था कि कुछ महीनों बाद पिताश्री भी परलोक के पथिक बन गए। कर्मविपाक से संवत् 1993 में पंन्यास रंग विजय जी का भी कालधर्म को प्राप्त हो गए। मोहन के कोमल हृदय पर संसार की असारता का गहरा आघात हुआ।
मोहन जब 17 वर्ष का हो गया, तब परिवारजनों ने उसका विवाह करा दिया लेकिन विवाह
महावीर पाट परम्परा
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