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के बाद मोहन प्रायः उदास रहने लगा। उसे संसार में नहीं, संयम में सुख की चाहना होने लगी। पूर्वभव के पुण्योदय से विजय वल्लभ सूरि जी के प्रशिष्य साहित्य प्रेमी मुनि विनय विजय से मोहन का सामीप्य बढ़ा जिन्होंने उसकी दीक्षा को भावना को पुष्ट किया। मोहन ने परिवार की आज्ञा भी यदा-कदा प्राप्त कर ली। ___ नरसंडा गाँव (जिला खेड़ा) गुजरात में फाल्गुन शुक्ल 5 वि.सं. 1998 के दिन मोहन भाई की दीक्षा मुनि विनय विजय जी की निश्रा में हुई और वे 'मुनि इन्द्र विजय' के नाम से विभूषित हुए। उनकी बड़ी दीक्षा महेन्द्र पंचांग के रचयिता आ. विकासचन्द्र सूरि जी की निश्रा में अगले वर्ष विजोवा (राज) में सम्पन्न हुई। ज्ञात इतिहास अनुसार, परमार क्षत्रियों में सर्वप्रथम जैन मुनि होने का गौरव मुनि इन्द्र विजय जी ने प्राप्त किया। शासन प्रभावना :
- मुनि इन्द्र विजय जी ज्ञानार्जन के शिखर पर आरूढ़ होते गए। ढूंढोर, पालनपुर, राजकोट, पालीताणा आदि जगहों पर प्रारंभिक चातुर्मास श्री विनय विजय जी के साथ सम्पन्न हुए। तदुपरान्त उन्हें विजय वल्लभ सूरि जी एवं विजय समुद्र सूरि जी की कल्पतरु सम निश्रा प्राप्त हुई। उनका ज्ञानार्जन और अधिक बढ़ गया। गुरुदेवों के आचार-विचार आदर्शों का भी इन्द्र विजय जी पर अमिट प्रभाव पड़ा। अंग-उपांग आदि आगमों के योगोद्वहन किए। संवत् 2010 में मुंबई में लाल बाग के उपाश्रय में थुम्बा (राज) के प्रतापचन्द्र दीक्षित हुए एवं इन्द्र विजय जी के प्रथम शिष्य - ओंकार विजय जी बने।
इन्द्र विजय जी की प्रखरता एवं योग्यता देखते हुए आचार्य समुद्र सूरि जी ने सूरत के वडाचौटा के उपाश्रय में चैत्र वदी 3, वि.सं. 2011 को इन्द्र विजय जी को गणि पदवी प्रदान की। उनकी शासन प्रभावना की अजोड़ शक्ति को देखते हुए उन्होंने ही माघ शुक्ला 5, वि.सं. 2027 को वरली (मुंबई) के अंजनश्लाका प्रतिष्ठा महोत्सव पर इन्द्रविजय जी को 'आचार्य' पद से विभूषित किया एवं 'आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि' नाम प्रदान किया। इस प्रसंग पर समुद्र सूरि जी ने फरमाया - 'गणि श्री इन्द्र विजय जी परमार-क्षेत्रियोद्धारक मुनिपुंगव हैं। वे मधुर वक्ता, श्री संघ निपुण एवं संयम पालन में शूर हैं। अतः उन्हें आचार्य पदवी देते हुए मुझे अतिशय आनंद का अनुभव हो रहा है।" पूना में समुद्र सूरि जी ने श्री इन्द्रदिन्न सूरि जी की घोषणा पट्टधर के रूप में की।
महावीर पाट परम्परा
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