Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 308
________________ सेठ से कहकर दिलवा दूंगा। किंतु छगन बोला - मुझे पैसा नहीं चाहिए! आपके पास जो अखूट संयमधन है, शाश्वत धर्मधन है, मुझे वह चाहिए!" आत्माराम जी म. ने भाँप लिया कि इस बालक में भक्ति, शक्ति और बुद्धि का त्रिवेणी संगम है एवं यह जिनशासन का उज्ज्वल सितारा बनेगा। परिवार की सहमति बिना दीक्षा मुश्किल थी। ज्येष्ठ भ्राता खीमचंद, छगन के दीक्षा के निर्णय के विरोध में डटकर खड़े रहे किंतु कई महीनों के छगन के पुरुषार्थ के बाद भाई को भी झुकना पड़ा। वैशाख शुक्ल 13 वि.सं. 1944, गुरुवार अर्थात् 5 मई 1887 को राधनपुर में आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरि जी के वरदहस्तों से छगन की दीक्षा सम्पन्न हुई। उनका नाम मुनि वल्लभ विजय रखा गया एवं वे गुरु आत्म के शिष्य लक्ष्मीविजय जी के शिष्य मुनि हर्षविजय जी के शिष्य घोषित किए गए। मुनि वल्लभ विजय जी की बड़ी दीक्षा वि.सं. 1946 में पाली में सम्पन्न हुई एवं उसी वर्ष गुरु हर्षविजय जी का स्वर्गवास हो गया। शासन प्रभावना : मुनिवर्य हर्षविजय जी के अल्पकालीन सहवास में भी मुनि वल्लभ विजय जी की प्रतिभा का आशातीत विकास हुआ। तदुपरान्त आचार्य विजयानंद सूरि जी ही उनके शिक्षागुरु बने। दादागुरु के सानिध्य में उन्होंने कर्म, न्याय, व्याकरण, दर्शन, तर्क, इतिहास विषयक अनेकानेक ग्रंथों-शास्त्रों का अध्ययन किया। गुरु आत्म के दाएँ हाथ के रूप में मुनि वल्लभ विजय जी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही। गुरु आत्म की भावना थी कि मुनि वल्लभ विजय जी ही उनके बाद पंजाब में जैन धर्म की प्रभावना करने में सर्वाधिक समर्थ हैं। ऐसे महान् ज्योर्तिधर के सानिध्य में स्वाध्याय और सेवा का योग केवल 8-9 वर्ष का ही बना। वि.सं. 1953 में गुजरावाला (वर्तमान पाकिस्तान) में गुरु आत्म का कालधर्म हो गया। _ वि.सं. 1953 में पंजाब संघ के आगेवानों ने महाराजश्री को आचार्य पद से विभूषित करने की बात की, किंतु वल्लभ विजय पदवी के लिए अनासक्त रहे। वि.सं. 1957 में पाटण में वयोवृद्ध मुनि कमल विजय जी को आचार्य पद से अलंकृत किया गया। उनकी इच्छा वल्लभ विजय जी को उपाध्याय बनाने की थी किंतु उन्होंने विवेकपूर्वक इनकार कर दिया। लंबे प्रयासों के बाद अंततः वयोवृद्ध मुनि सुमतिविजय जी आदि की निश्रा में समस्त संघों के निवेदन के महावीर पाट परम्परा 274

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