Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 307
________________ 74. आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी आजीवन अरिहंतशरण समर्पित, शान्ति एकता प्रचार । जनवल्लभ विजय वल्लभ सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ सम्यक् दर्शन - ज्ञान और चारित्र को अखंड रखकर धर्मक्रांति के अग्रदूत बनकर सामाजिक नवचेतना लाने वाले प्रभु भक्ति, गुरुभक्ति एवं शासनभक्ति को समर्पित आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी भगवान् महावीर की अक्षुण्ण देदीप्यमान पाट परम्परा के 74वें पट्टविभूषक बने । अपने नाम अनुरूप वे लोकवल्लभ ( जनप्रिय) बने । जन्म एवं दीक्षा : उनका जन्म कार्तिक शुक्ला 2 (भाईदूज ) के दिन वि.सं. 1927 में गुजरात राज्य की बड़ौदा (बड़ोदरा) नगरी में हुआ। पिता का नाम दीपचंद भाई एवं माता का नाम इच्छाबाई था। इनका स्वयं का नाम छगनलाल था एवं वे कुल 4 भाई - 3 बहनें थे। किंतु माता - पिता की छत्रछाया उन्हें अधिक नसीब नहीं थी । पहले तो श्री दीपचंद भाई का देहावसान हुआ एवं बाद में इच्छा माँ भी मृत्यु शय्या पर लेट गयी। बालक छगन ने भद्रिकता से माँ से पूछा - "माँ तू मुझे किसके सहारे छोड़कर जा रही है?” तब माँ ने अपने लाडले छगन को स्नेहयुक्त स्वर में आश्वासन देते हुए कहा 44 'अरिहंत की शरण स्वीकार करना ! अनंत सुख के धाम में पहुँचाए, ऐसे शाश्वत धर्मधन को प्राप्त करना !" माता के वे अंतिम शब्द 10-12 वर्षीय छगन के हृदय पर अंकित हो गए। - एक बार आचार्य विजयानंद सूरि जी म. बड़ौदा पधारे। जानीसेरी उपाश्रय में उनका प्रवचन हुआ। छगन भी उपाश्रय में धर्मदेशना सुनने जाने लगा । विजयानंद सूरि जी तो व्याख्यान वाचस्पति थे। उनके धर्मोपदेश सभी को हृदयंगम हो जाते थे। एक दिन धर्मदेशना के बाद सभी चले गए किंतु छगन वहीं बैठा रहा । गुरुदेव ने पूछा - " तू अभी भी क्यों बैठा है ? तुझे क्या चाहिए ?" छगन की आँखें नम हो गई। गुरु आत्म ने पूछा कि क्या तुझे धन की आवश्यकता है? छगन ने कहा “हाँ!” गुरुवर ने कहा " हम तो साधु हैं, हम धन नहीं रखते। तू कल आना ! किसी महावीर पाट परम्परा 273

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