Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 297
________________ 72. पंन्यास श्रीमद् बुद्धि विजय जी गणि सम्यक्त्व बोध बुद्धि धनी, सम्यक्त्व रूप आचार। बूटेराय जी बुद्धिविजय श्री, नित् वंदन बारम्बार ॥ सत्य की शोध, प्राप्ति एवं रक्षा जिनके जीवन का बहुमुखी लक्ष्य था, ऐसे सद्धर्म संरक्षक पंन्यासप्रवर श्रीमद् बुद्धि विजय जी (बूटेराय जी) शासनपति भगवान् महावीर स्वामी की अक्षुण्ण परम्परा में 72वें पट्टधर हुए। स्व पर कल्याण की शुभ भावना से उनका जीवन परिपूरित था। जन्म एवं दीक्षा : पंजाब की वीर प्रसूता भूमि पर सरहिंद से 5-6 मील दूर दुलूआ नामक गाँव था। वहाँ सिख धर्मानुयायी सरदार टेकसिंह की पत्नी कर्मोदेवी की कुक्षि से वि.सं. 1863 (ईस्वी सन् 1806) में. एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ । उसका नाम टलसिंह रखा गया किंतु बालक की शूरवीरता के कारण वह दलसिंह के नाम से जाना जाने लगा। कुछ वर्षों बाद टेकसिंह और कर्मोदेवी उस गाँव को छोड़कर बड़ा कोट साबरवान गाँव में आ बसे । इस गाँव के लोग बालक को ' बूटासिंह' बुलाने लगे। बूटा यानि हरा-भरा वृक्ष । सिंह यानि श्रेष्ठ । बूटासिंह सदा से ही धार्मिक प्रवृत्ति का था । गुरुद्वारे मंदिर में वह समय-समय पर जाया करता था। जब वह 15 - 16 वर्ष का था, तब उसका मन घर-संसार से उचाट हो गया। माता-पिता की आज्ञा से वह घर से निकल गया। उसे ऐसे गुरु की तलाश थी जो उसको सद्गुणों से संस्कारित कर सके। अनेकों वर्षों तक वह फकीरों, मठों, गुरुद्वारों, पहाड़ों में घूमता रहा किंतु कल्पनारूप त्याग, वह गुरु में नहीं मिला। एक बार उसे स्थानकवासी सम्प्रदाय के साधु नागरमल जी के दर्शन हुए। बूटासिंह ने अनेक तरह से उनको परखा एवं उनका चारित्र उसे बहुत पसंद आया। कुछ समय मुमुक्षु अवस्था में रहकर जैन साधु के आचारों को जानने के बाद वि.सं. 1888 (ईस्वी सन् 1831 ) में 25 वर्ष की आयु में दिल्ली में नागरमल जी के पास दीक्षा ग्रहण की एवं नाम बूटेराय ऋषि प्राप्त किया। महावीर पाट परम्परा 263

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