Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 299
________________ की आस्था उन्होंने विशुद्ध सनातन जैनधर्म के प्रति दृढ़ की । ईस्वी सन् 1862 का चातुर्मास उन्होंने गुजरावालां किया एवं 1863 का रामनगर में । अग्रिम दिल्ली चातुर्मास के पश्चात् उनकी परम पावन निश्रा में दिल्ली में हस्तिनापुर तीर्थ का छःरी पालित संघ निकला । लाहौर, जालंधर, लुधियाना, सामाना आदि पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों में सम्यक् धर्म की सिंहगर्जना करते हुए वे विचरे । समय-समय पर उन्होंनें शास्त्रार्थ करके जिनवाणी को विजयी बनाया। विभिन्न क्षेत्रों की धर्मस्पर्शना करते हुए उनका पदार्पण पुनः गुजरात की धर्मधरा पर हुआ। जिस तरह स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर सत्यधर्म एवं सद्गुरु की शोध करते हुए बुद्धि विजय जी का आशातीत आत्मोत्थान हुआ, उसी प्रकार आत्माराम जी आदि 16 स्थानकमार्गी, साधु भी सत्यशोध एवं सद्गुरु की खोज कर रहे थे। बुद्धि विजय जी के जीवन में स्वयं का प्रतिबिंब देखते हुए एवं उनकी प्रतिबोधकुशलता, आचारसंपन्न - जीवन, नि:स्पृह वृत्ति को देखकर उन्हें अपना गुरु धारण किया । वि.सं. 1932 ( ईस्वी सन् 1875) के आषाढ़ मास में अहमदाबाद में यह युगचर्चित संवेगी महादीक्षा का कार्यक्रम हुआ। श्री बुद्धि विजय जी ने आत्माराम जी को आनंद विजय नाम प्रदान किया एवं वासक्षेप डालकर एक सुयोग्य प्रतिभावान् शिष्य के गुरु बनने का श्रेय प्राप्त किया। • साहित्य रचना : सद्धर्म- संरक्षक बुद्धि विजय जी ने अपनी आत्मकथा में मुखवस्त्रिका विषयक चर्चाओं का प्रमुख उल्लेख किया, जो 'मुखपत्ती चर्चा' नाम से विख्यात हुई । वि.सं. 1919 ( ईस्वी सन् 1862) में गुजरावालां में पधारकर 24 तीर्थकर का एक 'चतुर्विंशतिस्तव' रचा। प्रतिष्ठित जिनमंदिर : बुद्धि विजय जी म.सा. ने अनेक स्थलों में सम्यग्दर्शन की दृढ़ता हेतु जिनमंदिर स्थापित किए 1) वैशाख वदि 13, वि.सं. 1920 में गुजरावालां में मूलनायक श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जी जिनालय आसोज सुदि 10, वि.सं. 1922 में पपनाखां में प्रतिष्ठित श्री सुविधिनाथ परमात्मा का महावीर पाट परम्परा 2) 265

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