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युवावस्था को प्राप्त बालक आत्माराम ने जैन मुनि दीक्षा अंगीकार करने का दृढ़ विचार किया। मार्गशीर्ष शुक्ला 5, वि.सं. 1910 के दिन मालेरकोटला में उन्होंने दीक्षा अंगीकार की एवं जैन मुनि आत्माराम बने।
मुनि आत्माराम जी स्वभाव से स्वाध्याय प्रेम, सत्यनिष्ठ एवं कठोर चारित्र पालक थे। उनकी सत्य शोध की ज्ञान पिपासा विशाल थी । व्याकरण एवं आगम ज्ञान पढ़ते-पढ़ते उनका सत्य से साक्षात्कार बढ़ता चला गया। स्थानकवासी मत द्वारा जिनप्रतिमा (मूर्ति) का निषेध, आगमों के व्याख्या साहित्य का अस्वीकार, आगमविरुद्ध वेशभूषा आदि को दबाने का निरर्थक प्रयत्न हुआ, किंतु मुनि आत्माराम निर्भीक थे। आगरा में स्थानकवासी वृद्ध मुनि रत्नचंद्र जी ने सद्गुरु के रूप में आगमों के पाठों का रहस्य अनावरित किया एवं मूर्तिपूजा का माहात्म्य बताकर आत्माराम जी को भविष्य में सत्यमार्ग प्ररूपणा के लिए अपार आशीर्वाद दिया। गुरु आत्म ने स्थानकवासी अवस्था में ही रहकर जहाँ से भी ज्ञान मिला, वह ग्रहण किया एवं सम्यक् धर्म का प्रचार चालू किया। उनकी दृढ़ सत्यनिष्ठा, प्रतिबोधकुशलता एवं शासनरसिकता के प्रभाव से अनेक सहवर्ती मुनि भी उनके साथ जुड़ गए।
वि.सं. 1931 में सुनाम से हाँसी जाते हुए उन्होंने एवं 16 अन्य साधुओं ने मुँह पर मुख्वस्त्रिका बाँधने की आगमविरुद्ध प्रथा छोड़ दी। तत्पश्चात् वरकाणा, राणकपुर, सिरोही, आबू, अचलगढ़, पालनपुर, भोयणी में स्थान-स्थान पर महाप्रभावक प्राचीन जिनप्रतिमाओं के दर्शन कर स्वयं के नयनों को पवित्र किया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए सभी साधु शाश्वत तीर्थ पालीताणा पधारे। सभी साधुओं ने कृतकृत्य होकर आनंद विभोर होकर श्री आदीश्वर दादा के दर्शन किए। मुनि आत्माराम जी की आँखें तो नम हो गई। उन्हें आत्म - ग्लानि होने लगी कि परमात्मा रूपी प्रतिमा का क्षण मात्र भी विरोध करना अज्ञानदशा का सूचक है एवं इतने वर्षों तक उन्हें इस सम्यक् धर्म से दूर रहना पड़ा। उन्होंने स्तवन की रचना की
" अब तो पार भये हम साधो, श्री सिद्धाचल दर्श करीरे ।”
अहमदाबाद में सद्धर्म संरक्षक श्री बुद्धि विजय जी म. के आगमानुकूल जीवन को देखकर एवं उनके जीवन की सत्यनिष्ठा के संघर्षों में स्वयं के प्रतिबिम्ब को देखकर मुनि आत्माराम जी एवं अन्य सभी मुनियों ने उनके चरणों में नतमस्तक होकर वि.सं. 1932 (ईस्वी सन् 1876) के आषाढ़ वदी 10 के दिन अहमदाबाद की सुविशाल जनमेदिनी के बीच श्वेताम्बर मूर्तिपूजक
महावीर पाट परम्परा
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