Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 283
________________ के मार्ग से महाविदेह क्षेत्र - सीमंधर स्वामी के पास ले गया। पूँजा ने सीमंधर स्वामी से पूछा कि मैं भव्य हूँ या अभव्य ? सम्यक्त्वी हूँ या मिथ्यात्वी ? एवं प्रभु ने अपनी मीठी वाणी में कहा तू भव्य है और आज ही तुझे समकित की प्राप्ति होगी । स्वप्न में यह बात सुनते ही पूँजाशाह का शरीर दिव्य ऊर्जा से भर गया। तभी संघपति कचरा कीका भाई वहाँ आए और पूँजाशाह को उठाया और कहा कि उठो! शिखरजी ऊपर जाने की आज्ञा मुखिया ने दे दी है, उस दिन पूंजाशाह ने 20 तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि सम्मेतशिखर जी पर पूजा की एवं कराई एवं स्वयं को प्रभु चरणों में समर्पित कर दिया। - वहाँ से वापसी में पटना में उनका दिगंबरों के साथ तथा आगरा में स्थानकवासियों के साथ वाद-विवाद हुआ जिसमें पूँजाशाह सफल (विजयी) रहे। किंतु उनकी माँ की ममता सदा उनके दीक्षा के मार्ग में कण्टक (कांटे) के समान बनी रही। उनकी माता ने उनसे वचन लिया कि जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक तू दीक्षा नहीं लेगा। मातृ सेवा को पूँजाशाह ने अपना धर्म समझा एवं उनके अन्त समय तक उनकी सेवा में भी रहा। उनकी माता की मृत्यु पश्चात् वैराग्य भाव से पोषित पूँजाशाह ने पंन्यास जिन विजय जी के पास चारित्र अंगीकार किया । वैशाख सुदि 6 वि.सं. 1796 में अहमदाबाद में यह दीक्षा सम्पन्न हुई एवं पूँजाशाह का नाम मुनि उत्तम विजय जी रखा गया। शासन प्रभावना : पन्यास जिन विजय जी एवं मुनि उत्तम विजय जी ज्ञानानुरागी थे। दोनों ने अति अल्प समय में देवचंद्र गणि जी के पास रहकर द्रव्यानुयोग, भट्टारक दया सूरि जी से भगवती सूत्र व नंदी. सूत्र, यति सुविधि विजय जी के पास मंत्रशास्त्र का अध्ययन किया । वि.सं. 1799 में पंन्यास जिन विजय जी के देहावसान पश्चात् उत्तम विजय जी ने मेहनत जारी रखी। उनके अध्य्यन एवं शासनकार्यों में सूरत के कचरा कीका भाई का आर्थिक सहयोग अनुमोदनीय रहा। संघवी फतेचन्द की पत्नी रतनबाई तथा संघवी ताराचंद जी ने मा.व. 2 गुरुवार वि.सं. 1821 को सूरत से गोड़ी पार्श्वनाथ ( वर्तमान पाकिस्तान) का संघ निकाला जिसमें उत्तमविजय जी (तपागच्छ संवेगी शाखा), पुण्यसागर जी (तपागच्छ सागरशाखा), हेमचन्द्र जी (आगमगच्छ), ज्ञानसागर जी (अंचलगच्छ) आदि सुसाधुओं की निश्रा रही। पंन्यास उत्तम विजय जी की निश्रा में सूरत, राधनपुर, लुंबड़ी में उपधान तप, सिद्धाचल, महावीर पाट परम्परा 249

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