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संघ व्यवस्था :
पंन्यास रूप विजय जी ने समय में साध्वी संपदा का काफी अभाव रहा क्योंकि राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के कारण दीक्षाएं अधिक नहीं हो पा रही हैं।
इनके 3 शिष्य प्रमुख रहे - कीर्ति विजय जी, उद्योत विजय जी एवं अमी विजय जी । पंन्यास अमी विजय जी की परंपरा में सौभाग्य विजय जी, रत्नविजय जी, भाव विजय जी, हर्ष सूरि जी, नीति सूरि जी आदि अनुक्रम से हुए। पट्टधर कीर्ति विजय जी की परम्परा भी विस्तृत हुई।
कालधर्म :
रूपविजय जी ने अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र के बल पर शासन की महती प्रभावना की । यतियों के साम्राज्य एवं साधुत्व की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने संवेगी परम्परा का कुशल संवहन किया।
पंन्यास रूप विजय जी का कालधर्म वि.सं. 1905 (1910) के आसपास हुआ। उनके पाट पर श्री कीर्ति विजय जी स्थापित हुए। पाटण क्षेत्रवासी के मंदिर में श्रीमद् रूपविजय जी महाराज की मूर्ति / प्रतिमा स्थापित है।
मुम्बई (तत्कालीन बम्बई ) में सुप्रसिद्ध श्री गोड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, ( पायधुनी) एवं भायखला के जिनमंदिर निर्माता परम प्रभुभक्त - गुरुभक्त श्री मोतीशाह सेठ भी पंन्यास रूपविजय जी के समकालीन हुए।
महावीर पाट परम्परा
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