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71. पंन्यास श्रीमद् मणि विजय जी गणि
धर्मक्रान्ति के सक्षम सर्जक, मणि अकाट्य धार।
महामना श्री मणिविजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ अपनी संयम साधना एवं प्रवचन प्रभावना के बल पर संवेगी साधुओं की परम्परा को विस्तृत कर शासन प्रभावक शिष्यों को तैयार करने वाले एवं यति परम्परा के उन्मूलन के शुभ भाव से विस्तृत क्षेत्रों में विहार कर पंन्यास श्री मणि विजय जी वीरशासन के क्रमिक 71वें पट्टधर हुए। जन्म एवं दीक्षा : - गुजरात प्रदेश के वीरमगाम एवं रामपुरा के 5 कोस दूर एक आधार नामक गाँव है। वहाँ श्रीमाली सेठ जीवनलाल एवं उनकी पत्नी गुलाबदेवी सुखपूर्वक सांसारिक जीवन व्यतीत करते थे। वि.सं. 1852 (ईस्वी सन् 1795) के भाद्रपद महीने में एक पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम मोतीचंद रखा गया। रूपचंद, मोतीचंद, नानकचंद और पानाचंद, इन चार संतानों के साथ पिता दशरथ की अनुभूति मानकर रहते थे।
व्यापार के उद्देश्य से पूरा परिवार खेड़ा जिले के पेटली गाँव में आकर बस गया। पुण्ययोग से पंन्यास कीर्ति विजय जी वहाँ पधारे। जीवनलाल जी कुटुम्ब के साथ गुरुदर्शन एवं जिनवाणी श्रवण हेतु उपाश्रय में आए। कीर्ति विजय जी ने मनुष्य भव की दुर्लभता का वर्णन एवं इसे सार्थक बनाने का आह्वान अपने प्रवचन में किया। व्याख्यान के बाद मोतीचंद (सेठ का द्वितीय पुत्र) गुरु महाराज के पास आकर बैठ गया एवं कहा कि "गुरुदेव! मुझे संसार से पार उतारो। दीक्षा प्रदान करो।" गुरुदेव ने कहा कि माता-पिता की आज्ञा के बिना हम दीक्षा नहीं देते। कीर्ति विजय जी ने बालक की हाथ की रेखाएं देखी। बालक की तेजस्विता जिनशासन के प्रचार में सहायक होगी, ऐसा अनुभव उन्हें हो गया। सेठ जीवनलाल जब अपने घर जाने लगे तब गुरुदेव ने सेठ को कहा कि "तुम्हारे पुत्र की भावना दीक्षा लेने की है।" सेठ ने बात पर गौर नहीं किया। लेकिन घर आकर तो मोतीचंद के आचार और विचारों में आशातीत परिवर्तन आ चुका था। सेठ को तब कीर्ति विजय जी की बात का स्मरण हो आया।
महावीर पाट परम्परा
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