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66. पंन्यास श्रीमद् उत्तम विजय जी गणि
दर्शन ज्ञान चारित्र उपासक, सीमंधर स्वप्न साकार।
लोकोत्तम श्री उत्तम विजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ चौबीसवें तीर्थाधिपति भगवान् महावीर स्वामी जी की संवेगी साधु भगवन्तों की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के 66वें क्रम पर पंन्यास उत्तम विजय जी हुए। इनका विचरण क्षेत्र विस्तृत था। अपनी मेधावी प्रतिभा एवं ज्ञान गाम्भीर्य के गुण से इन्होंने कई शास्त्रार्थ किए, कई ग्रंथ रचे एवं अनेकों के जीवन को सन्मार्ग की ओर मोड़ा। जन्म एवं दीक्षा :
अहमदाबाद में शामला पोल में सेठ बालचंद एवं उनकी पत्नी माणेक बाई के घर 3 पुत्री. एवं 1 पुत्र का अनुक्रम से जन्म हुआ। वि.सं. 1760 में जन्में प्रसन्न वदन पुत्र का नाम 'पूंजाशाह' रखा गया।
जब पूंजाशाह 18 वर्ष का हो गया, तब माता-पिता की आज्ञा से जैन विधि विधान का ज्ञान प्राप्त करने वह खरतरगच्छ के पं. देवचन्द्र गणि जी के साथ रहने लगा। नवतत्त्व, जीव विचार, संग्रहणी, तीन भाष्य, क्षेत्र समास, पंच संग्रह, कर्मग्रंथ, दर्शन सत्तरी इत्यादि अनेकानेक ग्रंथों का रहस्यपूर्वक, विनयपूर्वक अध्ययन पूँजाशाह ने देवचंद्र जी के पास किया। अनेकों वर्ष वह उन्हीं के साथ रहा।
वि.सं. 1794 में पं. देवचन्द्र जी के सदुपदेश से सूरत के सेठ कचरा कीका भाई ने रेलवे-बस द्वारा सम्मेतशिखर का यात्रा संघ लेकर जाने का सुनिश्चित किया। वे देवचन्द्र जी के पास आए
और निवेदन किया कि विधि-विधान, पूजन, प्रवचन के लिए किसी पंडित पुरुष को भेज दें। योगानुयोग पं. देवचन्द्र जी ने पूँजाशाह को साथ ले जाने को कहा। पूँजाशाह भी यात्रा में गया।
उन दिनों गाँव के मुखिया ने किसी कारण सम्मेत शिखर की चढ़ाई बंद कर दी थी। शाम को जब सभी तलहटी पर पहुँचे तो सभी निराश हुए। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई। पूँजाशाह जब रात को सोया था, तब स्वप्न में उसे एक देव ने दर्शन दिए। वह देव पूँजाशाह के मित्र - खुशालशाह का ही अगला भव था। देव पूँजाशाह को स्वप्न में ही नन्दीश्वर द्वीप
महावीर पाट परम्परा
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