Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 270
________________ शासन प्रभावनाः गीतार्थों की निश्रा में रहकर मुनि सत्य विजय जी ने शास्त्र-सिद्धान्त आदि का अभ्यास किया। विजय सिंह सूरि जी की आत्मीय भावना थी कि तपागच्छ में जिस शिथिलाचार की वृद्धि एवं यति परम्परा का प्रादुर्भाव हो चुका था, शासन रक्षा के उद्देश्य से क्रियोद्धार किया जाए। अतः इस कार्य को सफल बनाने हेतु उन्होंने सत्य विजय जी, वीर विजय जी, ऋद्धि विजय जी आदि साधुओं को तैयार किया। सिंह सूरि जी सत्य विजय जी को आचार्य पद देना चाहते थे, किन्तु सत्य विजय जी ने उसे स्वीकार न किया। ___ माघ सुदि 13, गुरुवार वि.सं. 1709 में सिंह सूरि जी ने शिथिलता निवारण हेतु 45 बोलों के पट्टक की रचना पाटण में की थी, उसमें सत्यविजय जी के भी हस्ताक्षर हैं। किन्तु कुछ ही महीनों में सिंह सूरि जी का कालधर्म हो गया। अपने पट्टधर शिष्य का देहावसान किसी भी गुरु के लिए घातक एवं हृदयविदारक होता है। विजय देव सूरि जी ने अगले वर्ष वि.सं. 1710 में पंन्यास वीर विजय को आचार्य पद प्रदान कर उनका नाम विजय प्रभ सूरि रखा एवं अग्रिम पट्टधर घोषित किया क्योंकि सत्य विजय जी ने पुनः पदवी ग्रहण से मना कर दिया। वै.सु. 13 गुरुवार वि.सं. 1711 के दिन पाटण में पुष्य नक्षत्र के योग में देवसूरि जी की आज्ञा से सिंह सूरि जी द्वारा निर्धारित क्रियोद्धार की योजना को सत्य विजय जी ने मूर्तरूप प्रदान किया। उन्होंने अनेकों साधुओं के साथ संवेगीपना स्वीकार किया। भिन्न-भिन्न गुरुपरम्पराओं के आचार्य ज्ञानविमल सूरि जी, उपाध्याय यशोविजय जी, उपाध्याय विनयविजय जी, उपाध्याय मान विजय, उपाध्याय धर्ममन्दिर विजय, उपाध्याय लावण्यसुंदर विजय जी आदि सच्चरित्रवान्-शुद्धाचारपालक साधुओं को भी उन्होंने इस क्रियोद्धार में सम्मिलित किया। संघ द्वारा सत्य विजय जी को पंन्यास पद से अलंकृत किया गया। वे अत्यंत शांत, त्यागी, वैरागी एवं विद्वान् थे, शुद्ध क्रिया के प्रेमी थे। सुप्रसिद्ध अध्यात्मयोगी आनन्दघन जी के साथ वे कई वर्षों तक वन में रहे। मेड़ता, नागौर, जोधपुर, सोजत, सादड़ी. उदयपुर, पाटण इत्यादि नगरों में अपने उपदेशामृत से पंन्यास सत्य विजय जी ने अनेकों भव्य आत्माओं को धर्मपथ से जोड़ा। संघ व्यवस्थाः आचार्य विजय सिंह सूरि जी ने जिस नियमावली पट्टक की रचना की थी, उसी के आधार पर सत्य विजय जी ने क्रियोद्धार किया एवं संवेगी साधु-साध्वी वृन्दों की व्यवस्था महावीर पाट परम्परा 236

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