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63. पंन्यास श्रीमद् कर्पूर विजय जी गणि
गणनायक पद गणि अधिष्ठित, सूरि सम कार्यभार।
कार्यकुशल कर्पूर विजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ शासननायक भगवान् महावीर स्वामी जी की 63 वीं पाट पर क्रियोद्धारक पंन्यास सत्य विजय जी गणि के शिष्य कर्पूर विजय जी गणि हुए। गुरु द्वारा प्रदत्त प्रवहमान संयम संस्कार सलिला से ओत-प्रोत होकर उन्होंने ह्रास होती संवेगी साधु परम्परा का सुयोग्य नेतृत्व तथा मार्गदर्शन किया। जन्म एवं दीक्षाः
गुजरात में पाटण नामक शहर के सन्निकट बागरोड़ नाम का गाँव है। वहाँ पोरवाल वंश के शाह भीम जी भाई अपनी पत्नी वीरा बाई के साथ सुखमयी सांसारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे। वि.सं. 1704 में उनके घर पुत्र रत्न का जन्म हुआ। पुत्र का नाम कानजी रखा गया।
संयोग और वियोग संसार के नियम हैं। कानजी की छोटी सी उम्र में ही माता-पिता दोनों की मृत्यु हो गई। कानजी का लालन-पालन-पोषण उसकी बुआ के घर पाटण में हुआ।
जब कानजी की उम्र 14 वर्ष की हुई, तब उसने सत्य विजय जी के दर्शन पहली बार किए। पाटण में पधारे सत्य विजय जी की सरल व सचोट व्याख्यान शैली कानजी के हृदय में बस गई। उनकी त्याग-तपस्या, निष्परिग्रहवृत्ति, सरलता एवं अप्रमत्त अवस्था से कानजी के अर्तमन में भी वैराग्य के बीज प्रस्फुटित हुए। कानजी के चारित्र की उत्कंठा की परीक्षा लेकर सत्यविजय जी ने मार्गशीर्ष सुदि वि.सं. 1720 में शुभ मुहूर्ते दीक्षा प्रदान की एवं 'मुनि कर्पूर विजय' नाम प्रदान किया। शासन प्रभावनाः
मुनि कर्पूर विजय जी ने गुरुनिश्रा में रहकर शास्त्राभ्यास किया वे नियमित रूप से आवश्यकादि सूत्रों का अध्ययन करते एवं शुद्ध साधुचर्या का पालन करते। विजय प्रभ सूरि जी ने कर्पूरविजय जी को योग्य जानते हुए आनन्दपुर में पण्डित पद (पंन्यास पद) से अलंकृत
महावीर पाट परम्परा
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