Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

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Page 277
________________ विजय जी के साथ पाटण में शासन की प्रभावना करते हुए विचरे जहाँ उन्हें पंन्यास पद प्रदान किया गया। संवत् 1744 में पाटण में कर्पूर विजय जी, क्षमा विजय जी की निश्रा में 700 के आसपास जिनवरों की प्राणप्रतिष्ठा हुई। अगले ही वर्ष पंन्यास कर्पूर विजय जी का कालधर्म हो गया एवं संवेगी साधुओं के नेतृत्त्व का उत्तरदायित्व पंन्यास क्षमा विजय जी के कंधों पर आ गया। बसंतपुर, सादड़ी, राणकपुर, घाणेराव, लोढ़ाणा, वरकाणा, नाडोल, नाडलाई, डुंगरपुर, केसरियाजी (धुलेवा), ईडर, बढ़नगर, बीसलपुर आदि अन्यान्य क्षेत्रों में इनका विचरण रहा जहाँ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, उपधान, ग्रंथ भंडारों की स्थापना, जीर्णोद्धार आदि कार्य संपन्न हुए। गुरुदेव के कालधर्म पश्चात् संघ की विनती को मान देते हुए खंभात, भोयरा, जंबूसर, भरूच आदि की स्पर्शना करते हुए सूरत पधारे । पूज्य क्षमा विजय जी का संवत् 1780 का चातुर्मास सूरत हुआ। साहित्य रचना : पन्यास क्षमा विजय जी ने 'पार्श्वनाथ स्तवन' की रचना की। यह कृति भक्तिप्रधान रही। उनकी प्रेरणा से उनके शिष्य मुनि माणेक विजय जी ने पर्युषणा व्याख्यान, आयंबिल वर्णन आदि पुस्तकें लिखीं। संघ व्यवस्था : उस समय परिस्थतियां अत्यंत विषम थी। संवेगी परम्परा के साधु भगवंतों की संख्या कम होती जा रही थी एवं साध्वी जी की संख्या भी अत्यंत ह्रास के मार्ग पर थी । पंन्यास क्षमा विजय जी ने स्व शक्ति अनुसार संघ का कुशल नेतृत्त्व किया। उनके प्रमुख 3 शिष्य थे 1. जिन विजय जी ये इनके पट्टधर बने । 2. जश विजय जी पंडित वीर विजय जी इनके प्रशिष्य बने । 3. माणेक विजय जी इन्होंने पर्युषणा व्याख्यान आदि ग्रंथ लिखे । संवत् 1780 में सूरत का चातुर्मास सम्पन्न कर क्षमा विजय जी ने जंबूसर की ओर विहार महावीर पाट परम्परा 243

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