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किया।
गुरु सत्य विजय जी के स्वर्गस्थ होने पर उनके पट्टधर कर्पूर विजय जी बने। पं. कर्पूर विजय जी ने वढीयार, मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र, अहमदाबाद, राधनपुर, सांचौर, सादरा, सोजीत्रा, वढनगर इत्यादि विविध स्थलों में विचरण तथा चातुर्मास किए। अपनी वृद्धावस्था में वे पाटण पधारे जहाँ उपधान, मालारोपण, बिंब प्रतिष्ठा आदि अनेक धर्मकृत्य कराए। उस समय पाटण के मुख्य श्रावक सेठ ऋखबदास जी थे। कुल 700 जिनप्रतिमाएँ संवत् 1774 के मधु मास में पंन्यास कर्पूर विजय जी द्वारा स्थापित कराई गई। अपने अन्त समय के दस चातुर्मास कर्पूर विजय जी ने वृद्धावस्था के कारण पाटण-अहमदाबाद किए। अपने चारित्र की सुवास से उन्होंने शासन की महती प्रभावना की। संघ व्यवस्थाः ' राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में मुगलों के आधिपत्य से एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में यतियों के
आधिपत्य से जैन साधु-साध्वियों के लिए स्थितियाँ प्रतिकूल बनती जा रही थी। अतः संवेगी साधु-साध्वी जी की संख्या कम हो रही थी।
पंन्यास कर्पूर विजय जी के प्रमुख 3 शिष्य रहे1. पंन्यास वृद्धि विजय जी ; 2. पंन्यास क्षमा विजय जी ; 3. पंन्यास मणि विजय जी कालधर्मः
अपनी अन्तिम अवस्था में पंन्यास कर्पूर विजय जी ने पाटण तथा अहमदाबाद के भिन्न-भिन्न संघों में विचरण कर धर्मजागृति की। अपने शिष्य क्षमा विजय को उन्होंने अपने पास बुलाया। क्षमा विजय जी के पाटण पधारने पर लोगों ने महोत्सव किया। इसी अवसर पर उन्हें पंन्यास पद दिया गया। श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा पश्चात् कर्पूर विजय जी पुनः पाटण में स्थिर हुए।
श्रावण वदि 14, सोमवार, वि.सं. 1775 के दिन पाटण में पंन्यास कर्पूर विजय जी का देवलोक गमन हुआ। जय जय नन्दा, जय जय भद्दा के उद्घोष से श्री संघ ने बहुमानपूर्वक मरणोत्तर क्रिया की। इनकी चरण पादुका करी ढेडेरवाड़े मंदिर में पधराई गई।
महावीर पाट परम्परा
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