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62. पंन्यास श्रीमद् सत्य विजय जी गणि
सत्यविजय जी पंन्यास पदे, निवारक शिथिलाचार।
सच्चरित्र स्वस्थ संपोषक, नित् वंदन बारम्बार॥ जब शिथिलाचारी साधु यति के रूप में प्रबलता को प्राप्त हो रहे थे, तब विजय सिंह सूरि जी की क्रियोद्धार की भावना को मूर्त रूप देने वाले पंन्यास सत्य विजय जी वीर शासन के 62 वें पट्टालंकार हुए। निष्परिग्रह वृत्ति, दूरदर्शिता, निर्मल संयम साधना एवं निरतिचार साधुता के द्वारा उन्होंने सभी चारित्रवान् संवेगी साधुओं का नेतृत्व किया। जन्म एवं दीक्षाः ___ मालवा सप्तलक्ष्य प्रदेश में लाडलु (लाडणु) नामक गाँव में दुग्गड़ गौत्रीय श्रावक शा. वीरचंद ओसवाल की धर्मपत्नी वीरमदेवी की कुक्षि से वि.सं. 1656 (मतांतर 1674) में एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ। माता-पिता ने शिशु का नाम शिवराज रखा। बाल्यकाल से ही वह कुशाग्र बुद्धि का धनी था। गाँव में मूर्तिपूजक चारित्रवान् साधु, लोंकागच्छीय स्थानकवासी साधु एवं श्रावक-साधु सम्मिश्रित-यति वर्ग का आवागमन होता रहता। सभी के वस्त्र श्वेत (सफेद) थे।
जब शिवराज की 14 वर्ष की आयु हुई तब उसे संसार की असारता का अनुभव हुआ। पुण्योदय से वैराग्य भाव से आत्मा पोषित हुई। शिवराज की दृढ़ता के समक्ष माता-पिता को झुकना पड़ा। उन्होंने कहा कि लोंकागच्छ के साधु के पास दीक्षा लेना। किंतु शिवराज ने अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा कि न ही गृहस्थों के द्वारा चलाए मत में दीक्षा लूँगा न ही परिग्रहधारी यतियों के पास दीक्षा लूँगा। शुद्ध चारित्र के पालक आ. देव सूरि जी के पट्टधर आ. सिंह सूरि जी के पास ही दीक्षा लूँगा।
अंततः वि.सं. 1671 (मतांतर 1688) में आचार्य विजय देव सूरि जी के वरद्हस्तों से शिवराज की दीक्षा हुए। वे आ. सिंह सूरि जी के शिष्य बने एवं उनका नाम मुनि सत्य विजय घोषित हुआ।
महावीर पाट परम्परा
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