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पर आज भी वे प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं जिनकी अंजनश्लाका अथवा प्रतिष्ठा हीर सूरि जी म. सा. ने करवाई थी।
कालधर्मः
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शासन की महती प्रभावना करते-करते विजय हीर सूरि जी संवत् 1651 (सन् 1594) के ऊना (गुजरात) चातुर्मास में वे अस्वस्थ हो गए। इसलिए चातुर्मास के बाद श्रीसंघ ने उन्हें विहार नहीं करने दिया। श्रीसंघ के आग्रह पर भी किसी तरह की औषधि का सेवन नहीं किया। दिन-प्रतिदिन उनकी रुग्णता बढ़ती गई फिर भी संवत् 1652 में पर्युषणों में कल्पसूत्र उन्होंने ही वांचा । भाद्रपद सुदी 11 संवत् 1652 (सन् 1595) के दिन अन्तिम शब्दोच्चारण करते हुए अपने अन्तेवासियों को कहा, 'अब मैं अपने कार्य में लीन होता हूँ। तुमने हिम्मत नहीं हारनी । धर्मकार्य करने में वीरता दिखानी है" इत्यादि । इसके बाद सूरिजी पद्मासन में विराजमान होकर माला करने लगे। चार मालाएँ पूरी कर जैसे ही पाँचवीं माला फेर रहे थे, वैसे ही माला उनके हाथ से गिर पड़ी एवं तपागच्छ का देदीप्यमान नक्षत्र अस्त हो गया।
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अगले ही दिन वहाँ पर लोगों ने आम के पेड़ों पर फल देखे। जिन पर कभी फल भी नहीं आते थे, उन पर भी भादों (भाद्रपद) के महीने में आम लगे थे, जो निस्संदेह दिव्यात्मा के पुण्य प्रताप का फल था।
बादशाह अकबर को भी सूरि जी के देहावसान का अपार दुःख हुआ किंतु उस स्थल के आम जो उन्हें भेजे गए थे, तो देखकर गुरुदेव के प्रति अतुल श्रद्धा का संचार हुआ। जिस बगीचे में सूरि जी का संस्कार हुआ, वे बगीचा और उसके आस-पास की 22 बीघा जमीन बादशाह अकबर ने जैनों को दी जहाँ पर दीवकी लाडकी बाई ने स्तूप बनवाकर आचार्य श्री की चरण पादुकाएँ स्थापित की।
आचार्यश्री की रुग्णावस्था जानकर विजय सेन सूरि जी ने ऊना की ओर विहार किया था किंतु कारणवश वे उनसे दूर थे एवं अंत समय में उनके दर्शन नहीं कर सके। कवि ऋषभदास के अनुसार उनके संस्कार में 21 मन चंदन, 4 मन अगर, 15 सेर अम्बर कस्तूरी एवं अढाई सेर केसर डाला गया व वे कालोपरान्त दूसरे देवलोक में गए थे।
महावीर पाट परम्परा
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