________________
विजय देव सूरि जी, विजय सिंह सूरि जी के समय में जैन संघ में शिथिलाचार वृद्धि को प्राप्त था। साधु वंश में रहकर यतिचर्या का पालन करने वाले साधु-साध्वी जी की संख्या बढ़ती जा रही थी। सिंह सूरि जी की क्रियोद्धार की भावना अत्यंत प्रबल थी किंतु उनके आयुष्य कर्म ने उनका सहयोग नहीं दिया एवं गुरु देव सूरि जी की हाज़िरी में ही उनका कालधर्म हो गया। __ जिस वर्ष पूज्य सिंह सूरि जी का काल हुआ, उसी वर्ष अपने देहावसान से कुछ महीने पूर्व माघ सुदि 13 गुरुवार वि.सं. 1709 में पुष्य नक्षत्र के योग में विजयदेव सूरि जी की निश्रा में संवेगी (शुद्धपक्ष) एवं मध्यस्थ यतिओं के लिए 45 बोल का मर्यादापट्टक बनाया तथा संवेगी मार्ग को प्रकाश में लाने की कोशिश की। बोल नम्बर 41 के अनुसार तपागच्छ की समाचारी के ऊपर, पंचांगी (मल, भाष्य आदि) के ऊपर तथा वीतराग भगवंत की पूजा के ऊपर जिसे अविश्वास हो उसके साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार नहीं करना। इसके अलावा जैन संघ में सुविधानुसार जैन श्रमण-श्रमणी का चारित्र ह्रास होता जा रहा था। विजय देव सूरि जी वृद्धावस्था के कारण क्रियोद्धार स्वयं न कर सके एवं विजय सिंह सूरि जी की प्रबल भावना थी, जो उनके कालधर्म उपरांत उनके ज्येष्ठ शिष्य पंन्यास सत्य विजय ने साकार की।
प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ:
विजय सिंह सूरीश्वर जी ने अपने जीवनकाल में अनेकों स्थान पर अंजनश्लाका-प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न कराई। आज भी अनेकों जगहों पर उस समय की प्रतिमाएँ मिलती है। उनमें से कुछ प्रमुख की गणना व विवरण निम्नलिखित प्रकार से है:1. गोड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, अजमेर में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की पंचतीर्थी की प्रतिमा
(लेखनुसार आषाढ़ सुदि 13 गुरुवार वि.सं. 1679 में प्रतिष्ठित)। 2. नवलखा पार्श्वनाथ जिनालय, पाली में प्राप्त पार्श्वनाथ जी, महावीर स्वामी एवं
सुपार्श्वनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 8 शनिवार वि.सं. 1686 में । प्रतिष्ठित)। आदिनाथ जिनालय, सेवाड़ी में प्राप्त मूलनायक आदिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 8 शनिवार वि.सं. 1686 में प्रतिष्ठित)।
महावीर पाट परम्परा
231