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पट्टधर बनाया गया। विजय देव सूरि जी के हृदय में किसी प्रकार का अन्यथा भाव गुरु, गुर्वाज्ञा अथवा संघ के प्रति नहीं था। विजयदेव सूरि जी से तपागच्छ की मूल परम्परा आगे बढ़ी तथा विजय तिलक सूरि जी से नयी शाखा-आनन्द सूरि शाखा बनी।
विजय देव सूरि जी के 200 शिष्य थे। प्रमुख-कनक विजय और लावण्यविजय। अपने विद्वान् शिष्य कनकविजय को देवसूरिजी ने वि.सं. 1682 में अपना पट्टधर बनाया और नाम सिंह सूरि दिया किंतु उनके ही जीवनकाल में उनके उत्तराधिकारी का स्वर्गवास हो गया। अतः उन्होंने अन्य साधु को उत्तराधिकारी बनाया।
कुल 2500 साधु-साध्वी इनकी आज्ञा मानते थे। दो को आचार्य पद, 25 को वाचक (उपाध्याय) पद एवं 500 से अधिक को पंडित पद प्रदान किया। सात लाख श्रावक इनकी आज्ञा मानते थे।
. इनके काल में यत्र-तत्र जगहों पर जैन परम्परा में यतियों, ऋषियों, श्रीपूजों की ख्याति एवं आधिपत्य शनैः-शनैः स्थापित हो रहा था, जो चिंता का विषय था। इनके समय में तपागच्छ के भी साधु-साध्वियों में समाचारी में बदलाव आया। वैशाख सुदि 7 बुधवार वि.सं. 1677 में उन्होंने 58 बोल का पट्टक जारी किया तथा माघ सुदि 13 वि.सं. 1709 में पाटण में साधु-साध्वियों के लिए ही 45 बोल का पट्टक बनाया। प्रथम चैत्र सुदि 9 को कालुपुर अहमदाबार वि.सं. 1681 में तपागच्छ मुनियों का सम्मेलन भी हुआ। किंतु अनेक कारणों से संघ में धीरे-धीरे विघटन, सुविधानुसार आचार आदि प्रविष्ट होते चले गए। उसके हिसाब से देव सूरि जी ने संघ को कुशल नेतृत्व प्रदान किया। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ:
आचार्य विजयदेव सूरि जी का जीवन चरित्र विशद रूप में प्राप्त होता है। उन्होंने कहाँ पर, कब और कितनी प्रतिमाएँ विराजमान की, इसका मूल रूप से विवरण रास, काव्य, चरित्र ग्रंथ आदि में मिलता है। वर्तमान में भी उनके द्वारा प्रतिष्ठित सैकड़ों जिनप्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं। कुछ इस प्रकार हैं1. जैन मन्दिर, गवाड़ा में प्राप्त धर्मनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेख अनुसार पौष वदि
2, बुधवार, वि.सं. 1664 में प्रतिष्ठित)।
महावीर पाट परम्परा
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