Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra

Previous | Next

Page 242
________________ आनंदविमल सूरि जी ने उन्हें पारणा कराया और पूछा कि तुझे कौन-सी काम्बली चाहिए? तब मुनिराज ने कहा कि मुझे कोई भी काम्बली नहीं चाहिए। आपकी भावना थी कि वह आहार परठा न जाए। जब मेरा तन मन आपको समर्पित है तो आपकी इच्छा कैसे पूरी न करता? आप बस मुझे आशीर्वाद देते रहो! आचार्यश्री जी ने मुनि उदयधर्म को गले से लगा लिया। वि.सं. 1587 में सिरोही में आचार्य आनंदविमल सूरि जी म. ने अपने शिष्य की योग्यता देखते हुए चतुर्विध संघ के समक्ष परमेष्ठी के तृतीय पद - आचार्य पद से विभूषित किया एवं नाम विजय दान सूरि रखा। कभी गुरु के साथ तो कभी गुर्वाज्ञा से स्वतंत्र विचरण करते थे। दक्षिण गुजरात, मालवा, मारवाड़, कोंकण आदि अनेक क्षेत्रों में अस्खलित रूप से तपस्या सहित विचरे। छट्ठ अथवा अट्ठम की अनेक क्रमिक तपश्चर्याएं वे करते थे तथा आजीवन के लिए घी के सिवाय 5 विगय (दूध दही इत्यादि) का जीवनपर्यन्त त्याग रखा। आगमाध्ययन करते कराते अनेकों बार आचारांग सूत्र, स्थानांग सूत्र आदि 11 अंगों को शुद्ध किया। तीर्थंकर परमात्मा की वाणी के प्रति उनको बहुत अहोभाव था। मेवाड़, मारवाड़, मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र, कोंकण आदि क्षेत्रों में आगम वाचना के माध्यम से एवं अन्य गीतार्थं आचार्यों के सहयोग से 45 आगमों का संशोधन किया। एक बार विचरते-विचरते वे अजमेर नगर में आए। अनेकों श्रावक ने जिनप्रतिमा उत्थापक लोकाशाह के मत को स्वीकार किया हुआ था क्योंकि उनके अनुसार वहाँ किसी लोंकागच्छीय (स्थानकवासी) की मृत्यु बाद वो व्यंतर देव बना था जिसके कारण ऐसा हुआ कि वह दान सूरीश्वर जी म.सा. के कुछ शिष्यों को व्यंतर देव रात्रि में डराने लगा। विविध रूपों में उनपर उपद्रव करने लगा। इस प्रकार प्रतिदिन ही वह व्यंतर साधुवृंदों को कष्ट देने लगा। सभी साधुओं ने एक स्वर में दान सूरि जी को यह प्रकरण बताया व रक्षा का निवेदन किया। प्रतिक्रमण उपरांत सभी मुनियों ने संथारा लगाया व निद्रा ली। दान सूरि जी एकान्त ठिकाने में बैठकर सूरि मंत्र का जाप करने लगे। वह दुष्ट व्यंतर पुनः आया एवं आचार्यश्री जी पर उपसर्ग करने लगा, डराने लगा, जाप से विचलित करने लगा परन्तु उसके सभी प्रयास निष्फल रहे। भयभीत होकर वह व्यंतर अजमेर से चला गया। अगले दिन आचार्यश्री ने सबको सूचित किया वह व्यंतर देव अब नहीं आएगा। सभी साधु व श्रावक प्रसन्न हुए। उनके जिनमत सम्बन्धी उपदेशों को सुनकर अनेक श्रावक उनके अनुरागी हो गए एवं शुद्ध मूर्तिपूजक धर्म ग्रहण किया। महावीर पाट परम्परा 208

Loading...

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330