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खंभात, अहमदाबाद, पाटण, कंधार आदि क्षेत्रों में प्रवेश कर दिव्य जैन धर्म की पताका लहराई। उस समय के बादशाह मोहम्मद को भी धर्मोपदेश देकर धर्मानुरागी बनाया।
श्री विजय दान सूरि जी के उपदेश से ही बादशाह मुहम्मद के मान्य मंत्री गुलराज ने जो 'मालिक श्री नगदल' कहलाता था, उससे शत्रुंजय महातीर्थ को 6 महीने तक के लिए सभी करों (Tax) से मुक्त कराया था एवं सब जगह कुंकुमपत्रिका आदि को भिजवाकर अनेकों देश, नगर, गाँवों के संघों के साथ मिलकर शत्रुंजय गिरिराज का भव्यातिभव्य संघ निकाला।
दान सूरीश्वर जी के उपदेशामृत के प्रभाव से गंधार नगर के श्रावक रामाजी तथा अहमदाबाद के शाह कुँवर जी आदि श्रेष्ठियों ने मिलकर शत्रुंजय मंदिर का जीर्णोद्धार कराया एवं चौमुख जी, अष्टापद मंदिर आदि जिनालयों का निर्माण करवाया एवं इसके उपरांत रैवतगिरि गिरनार तीर्थ पर जीर्ण अवस्था में रहे जिनमंदिरों का उद्धार करवाया। इस प्रकार शासन प्रभावना के विविध कार्य उनके हस्ते सम्पन्न हुए ।
संघ व्यवस्था :
आचार्य आनंदविमल सूरि जी से विरासत में प्राप्त विशाल साधु-साध्वी समुदाय का कुशल संवर्धन एवं नेतृत्त्व पूज्य दान सूरि जी ने किया । लोंकागच्छ के भी अनेक साधुओं ने जैनागमों का शुद्ध अर्थ समझकर उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। इन्हीं के समय में उपाध्याय धर्मसागर 'जी ने सभी गच्छों की अशिष्टोचित आलोचना करके असंतोष का वातावरण उत्पन्न कर दिया जिससे श्वेताम्बर समाज में परस्पर तीव्र वैमनस्य होने लगा। अतः विजय दान सूरि जी ने उपाध्याय धर्मसागर जी को गच्छ से निष्कासित कर दिया और उनके द्वारा लिखित तथाकथित ग्रंथ "कुमतिकुद्दाल" को जलशरण करा दिया। दान सूरि जी अपने शिष्यों के लिए ज्ञानार्जन एवं शुद्ध साध्वाचार को प्रमुखता देते थे। राजविमल जी, हीर सूरि जी आदि अनेकानेक शिष्यों ने दान सूरि के नाम को सार्थक किया। इन्होंने भी साधु-साध्वी के सदाचार विषयक 7 बोलों की आज्ञा जारी की थी।
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विजय दान सूरीश्वर जी की संयम शक्ति के प्रभाव से माणिभद्र देव भी उन्हें प्रत्यक्ष थे। माणिभद्र देव ने उन्हें संकेत दिया कि वे अबसे अपनी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में 'विजय' शाखा स्थापित करें अर्थात् नाम में विजय शब्द सम्मिलित करें तथा देवता ने सदा उनकी शिष्य परंपरा को सहयोग का आश्वासन दिया। तभी से तपागच्छीय मुनि के नाम में बाद में तथा
महावीर पाट परम्परा
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