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30) नीवि में एक नीवि से ज्यादा नहीं लेना। 31) 84 गच्छ में से किसी भी महात्मा को गुरु के कहे बिना न रखना। 32) गुरु से पूछे बिना नई प्ररूपणा - नई समाचारी शुरु नहीं करना। 33) एक निवास स्थान न धारें। 34) कोरपाण वाला वस्त्र न लिया जाए। 35) कोरे वस्त्र में सलवट डालें जाएं, एकदम नया अबोट वस्त्र गीतार्थ मुनि को छोड़ अन्य
कोई साधु अपने काम में न लें। इस प्रकार 35 बोलों की घोषणा के पश्चात् आनंदविमल सूरि जी ने समूचे गच्छ में उनका पालन सुनिश्चित किया। तत्पश्चात् घूम-घूमकर उन्होंने उन्मार्ग का उन्मूलन व सन्मार्ग की स्थापना कर तपागच्छ को सुदृढ़ किया। क्रियोद्धार के बाद सुदीर्घ अवधि तक के बेले-बेले की तपस्या करते रहे जिससे उन्हें निरंतर संघ संचालन की असीम शक्ति मिलती थी। उनके प्रधान शिष्य दान सूरि जी सदैव उनके दाहिने हाथ के रूप में साथ रहे। शिथिलाचार के विरोध में शुद्ध चारित्रधारी सुसाधुओं के लिए काथे (केसरिया) रंग के वस्त्र चालू किए। संवेगी साधु स्वयं काथा कूटते थे एवं रंग करते थे। गुरु हेमविमल सूरि जी कृत 13 काठियों की सज्झाय में कहा है
"इग्यारमें जीव चिंतवे इस्युं, ऐ गुरु काथो कूटे कीस्युं" प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ : ___जिनशासन के मुख्य अंगभूत जिनप्रतिमाओं की उपेक्षा आचार्य आनंदविमल सूरि जी को सदैव चिंतित करती थी। भक्त श्रावकों में जैनत्व जागरण कर उन्होंने अजमेर (अजयमेरु), सांगानेर (सांगानगर), जैसलमेर, मंडोवर, नागोर, नाडलाई, सादड़ी, सिरोही, पालीताणा, जूनागढ़, पाटण, राधनपुर, अहमदाबाद, महेसाणा, कावी, गंधार, ईडर, कपड़वंज, खंभात आदि अनेक स्थानों पर प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से उन्होंने प्रतिष्ठा अंजनश्लाका की अथवा करवाई। उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएं वर्तमान में कई जगह मिलती हैं1) श्री शांतिनाथ जिनालय, नदियाड़ एवं भीडभंजन पार्श्वनाथ जिनालय, खेड़ा में प्राप्त
पार्श्वनाथ जी की धातु की प्रतिमा (प्रतिमालेख अनुसार माघ वदि 2 बुधवार संवत्
महावीर पाट परम्परा
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