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75 साधुओं ने आनंदविमल सूरि जी से सम्यकत्व ग्रहण कर उनके पास आकर पुनः दीक्षा ग्रहण की। अपनी प्रतिबोधकुशलता तथा आचारसंपन्नता से उन्होंने 500 से अधिक भव्य जीवों को दीक्षा दी। उस समय उनकी आज्ञा में 1800 साधु विचरते थे।
श्रमण समुदाय में शनैःशनैः घुस रहे परिग्रहवृत्ति इत्यादि शिथिलाचार के विरोध में अपने स्वरों को मुखरित कर वि.सं. 1582 में वैशाख सुदी 3 के दिवस वडाली (चाणस्मा तीर्थ के पास वडावली) गांव में कई संविग्न साधुओं को साथ लेकर वृद्ध गुरुदेव हेमविमल सूरि जी की आज्ञा से क्रियोद्धार किया। स्वयं का एवं अपनी आज्ञा में रहे सभी साधु-साध्वी वृंद का आचार शास्त्रानुसार हो, ऐसा बल उन्होंने दिया। प्रारंभ में 500 साधुओं के साथ चाणस्मा के पास वडावली ग्राम में क्रियोद्धार किया। कल्पसूत्र की एक टीका में फरमाया है कि परमात्मा महावीर के निर्वाण के 2000 वर्ष तक भस्मग्रह का प्रभाव रहा जिसके कारण जिनशासन के कार्यों में काफी बाधाएं आई। इस समय तक भस्मग्रह उतर गया था एवं यह क्रियोद्धार धर्मसंघ में चारित्राचार के विकास में सहायक बना।
क्रियोद्धार के बाद वि.सं. 1583 में पाटण में विराजते हुए आनंदविमल सूरि जी ने सब साधुओं के लिए 35 बोल के नियम जारी किये। प्रमुख रूप से 35 बोल / नियम इस प्रकार थे1) गुरु की आज्ञापूर्वक ही विहार करना। 2) वणिक् के सिवाय किसी को दीक्षा नहीं देनी। 3) साध्वी को गीतार्थ की निश्रा में दीक्षा देनी।
गुरु महाराज दूरस्थ हो तो अन्य गीतार्थ के पास कोई दीक्षा लेने आए तो परीक्षा बाद
ही विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करना। 5) पाटण में गीतार्थ का समूह रहे, वो चातुर्मास हेतु नगर में 6 ठाणा व ग्राम में 3 ठाणा
कम से कम रहें। 6) गुरु महाराज दूरस्थ हों तो कागज से आज्ञा मंगवाना। 7) एकल (अकेला) विहार नहीं करना। 8) कोई साधु अकेले विहार करके आए तो मांडली में किसी को नहीं बिठाना। 9) दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चौदस, अमावस्या और पूर्णिमा महीने में 12 दिन विगय
महावीर पाट परम्परा
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