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53. आचार्य श्रीमद् लक्ष्मीसागर सूरीश्वर जी
सरल स्वभावी - सरस प्रभावी, सुयोग्य संघ संचार । आत्मलक्ष्मीधनी सूरि लक्ष्मीसागर, नित् वंदन बारम्बार ॥
नीरक्षीरविवेकी एवं हंसदृष्टि के पारगामी, प्रशान्तस्वभावी आचार्य विजय लक्ष्मीसागर सूरि जी भगवान् महावीर की पाट परम्परा के क्रमिक 53वें पट्टधर हुए। अपने ज्ञान सागर से आत्म लक्ष्मी का साक्षात्कार कर उन्होंने सिद्धांत प्रचार के उद्देश्य से अप्रतिम संघ व्यवस्था करके युगप्रधानसम जिनशासन के अनेक कार्य सम्पन्न कराए।
जन्म एवं दीक्षा :
भाद्रपद वदि 2 वि.सं. 1464 में अश्विनी नक्षत्र तथा कुंभ लग्न में गुजरात के उमता (उमापुर) गाँव में सेठ करमशी की पत्नी कर्मादेवी की कुक्षि से एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। उसका नाम 'देवराज' रखा गया । बालावस्था से ही मुनि भगवंतों के परिचय एवं आने-जाने से बालक को वैराग्य का भाव उत्पन्न हुआ । पूर्वभव के उच्च संस्कारों के कारण ओघे और पात्रे ही देवराज को अपने खिलौने लगते थे। माता की आज्ञा से शिशु आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी की सेवा में रहने लगा ।
छह वर्ष की आयु में पाटण नगर में वि.सं. 1470 में माता की आज्ञा से बालक दीक्षा ग्रहण की। उनका नाम 'मुनि लक्ष्मीसागर' रखा गया।
शासन प्रभावना :
बालवय में दीक्षा लेकर कुशाग्र बुद्धि के धनी मुनि लक्ष्मीसागर अहर्निश ज्ञानसाधना एवं आत्मोत्थान में अग्रसर रहे । सिद्धांत चर्चा में बाखत में वादियों को परास्त किया तथा जीर्णदुर्ग के राजा महीपाल को प्रभावित किया । विवाहप्रज्ञप्ति ( भगवती सूत्र ) के योगोद्वहन के पश्चात् 1478 में गणिपद प्राप्त कर लेने के बाद वि. सं. 1489 में आचार्य श्री सोमसुंदर सूरि जी ने देवगिरि में महादेव शाह के महोत्सव के दौरान पंन्यास (पंडित) पद प्रदान किया। आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने वि.सं. 1501 में मुंडस्थल में उपाध्याय पद प्रदान किया। उनकी ही भावना को मूर्तरूप देते
महावीर पाट परम्परा
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