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मौजूद था। वि.सं. 1522 में 'गच्छ-परिधापनिका' महोत्सव में उन्होंने अनेक योग्य साधुओं की आचार्य पद, वाचक (उपाध्याय) पद, पंडित (पंन्यास) पद आदि प्रदान किए तथा अलग-अलग जिम्मेदारियां विभाजित कर श्रीसंघ की समुचित सुंदर व्यवस्था की। सोमचारित्र गणी जी द्वारा रचित 'गुरुगुणरत्नाकर' ग्रंथ के अनुसार आचार्यश्री जी की निश्रा में जो प्रमुख गुरुदेव थे, वे इस प्रकार है - - आचार्य सुधानंदन सूरि जी आदि 29 - आचार्य शुभरत्न सूरि. जी आदि 14 - आचार्य सोमजय सूरि जी आदि 25 - आचार्य जिनसोम सूरि जी आदि 15 - आचार्य जिनहंस सूरि जी आदि 39 - आचार्य सुमतिसुंदर सूरि जी आदि 53 - आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी आदि 57 - आचार्य राजप्रिय सूरि जी आदि 12 - आचार्य इन्द्रनन्दी सूरि जी आदि 11 - उपा. महीसमुद्र जी आदि 29 - उपा. लब्धिसमुद्र जी आदि 31/27 - उपा. अमरनन्दी जी आदि 27 - उपा. जिनमाणिक्य जी आदि 31/21 - उपा. धर्महंस जी आदि 12 - उपा. आगममंडन जी आदि 12 - उपा. गुणसोम जी आदि 11 - उपा. अनंतहंस जी आदि 12 - उपा. संघसाधु जी आदि 14
यह सूची अत्यंत बृहद् है। हम एक पल को विचारे जिनशासन का कितना ठाठ होता होगा, उस समय जब तपागच्छ के एकसूत्रीय साम्राज्य में ऐसे विद्वान् सामर्थ्यवान् भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विचरण कर जिनवाणी की सिंहगर्जना करते होंगे।
पाटण के सेठ छाडा पोरवाल के वंश में उत्पन्न हुई कुमारी पुरी को भी आचार्यश्री जी ने एकबार आशापल्ली गाँव में दीक्षा दी और नाम साध्वी सोमलब्धि श्री रखा। गच्छ परिधापनिका महोत्सव में श्रमणी संघ को भी अत्यंत आदर सहित विभूषित किया गया। आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी ने साध्वी सोमलब्धि आदि 8 साध्वियों को 'प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया तथा साध्वी उदयचूला श्री को 'महत्तरा' पद से विभूषित किया। उस काल में सब जगह 'जैनम् जयति शासनम्' का उद्घोष हो रहा था। हर आयाम से जैन संघ समृद्धि एवं विस्तार को प्राप्त था। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ :
महावीर पाट परम्परा
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