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54. आचार्य श्रीमद् सुमतिसाधु सूरीश्वर जी
कुमतिनिवारक, सुमतिप्रदायक, अपश्चिम अणगार।
आचार्यदेव श्री सुमतिसाधु, नित् वंदन बारम्बार॥ शान्त स्वभावी, सूरिमंत्र समाराधक सुमतिसाधु सूरि जी भगवान् महावीर की 54वीं पाट पर विराजमान हुए एवं अपने गुरुदेवों द्वारा प्रदत्त तपागच्छ के योग क्षेम के कर्त्तव्य को निभाया। इस काल में साधु-साध्वी जी समुदाय में धीरे-धीरे शिथिलाचार प्रवेश करना आरंभ हो चुका था, तदुपरान्त भी आचार्यश्री जी ने कुशल संवहन किया। जन्म एवं दीक्षा :
मेवाड़ प्रदेश के जावरा नामक गाँव में सेठ गजपति की धर्मपत्नी-संपूरी देवी रहते थे। वहां श्री शांतिनाथ जी का सुंदर देरासर था। संपूरी देवी ने अपनी रत्नकुक्षि से एक रत्न समान बालक को जन्म दिया। गर्भ के प्रभाव से माता को शत्रुजय यात्रा, साधर्मिक वात्सल्य आदि के स्वप्न आए थे। वि.सं. 1494 में जन्में उस बालक का नाम नपराज रखा गया। अपनी मेधावी छवि एवं सौम्य प्रकृति के कारण वह बालक संपूर्ण गाँव का वात्सल्य पात्र बन चुका था। - आचार्य रत्नशेखर सूरि जी म.सा. की प्रवचन प्रभावना व संयम पालना के प्रभाव से बालक के हृदय में भी वैराग्य के बीच अंकुरित हुए। माता-पिता बालक की दीक्षा से विचलित हो गए लेकिन आचार्यश्री ने समझाया कि तुम्हारा पुत्र अभी कुल दीपक है व गाँव का वात्सल्य पात्र है। अगर यह दीक्षा लेता है तो निश्चित शासन का दीपक तथा संपूर्ण चतुर्विध संघ का वात्सल्य पात्र बनेगा। वि.सं. 1511 में 17 वर्ष की युवावस्था में बालक की दीक्षा हुई एवं उसका नाम 'मुनि सुमतिसाधु' रखा गया। शासन प्रभावना :
मुनि सुमतिसाधु दीक्षा पश्चात् सेवा और स्वाध्याय में अग्रसर रहे। इनकी योग्यता को देखते हुए आचार्य रत्नशेखर सूरि जी ने पाटण में इन्हें पंन्यास पदवी से अलंकृत किया। महोत्सव का संपूर्ण आयोजन पाटण के शिवराज शाह ने किया। वि.सं. 1518 में दीक्षा के सातवें वर्ष में ही आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी ने आचार्य पद प्रदान किया एवं इनका नाम - 'आचार्य महावीर पाट परम्परा
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