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ऐसा पूर्ण प्रयत्न आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने किया। इनकी आज्ञा में 9 आचार्य, अनेकों उपाध्याय, पंन्यास आदि थे। इन्होंने 600 भव्य आत्माओं को दीक्षा दी। इनके परिवार में कुल 1800 साधु थे। सर्वगणि जी, अमर गणि जी, कमल गणि जी आदि अनेक समर्थ साधु इनके
शिष्य थे।
इनके काल में साधु-साध्वी जी के आचार में अवांछनीय परिवर्तन आने चालू हो गए थे। समय के प्रभाव से सुविधावाद के कारण आचार शिथिलता की ओर बढ़ता जा रहा था। आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने उसका यथाशक्ति निवारण कर स्वयं को सदा आदर्श रूप में स्थापित किया।
वि.सं. 1551 में आचार्य श्री जी खंभात पधारे। आपसी मतभेद के कारण आचार्य विजय इन्द्रनन्दी सूरि जी, आचार्य कमलकलश सूरि जी किसी अन्य को पट्टधर बनाने पक्ष में नहीं थे। किंतु अपना उत्तराधिकारी चुनने का निर्णय गच्छाचार्य का स्वतंत्र होता है। सुमतिसाधु सूरि जी सावधान हो गए। उन्हें अंदेशा हो गया कि नूतन पट्टधर के कारण गच्छभेद न हो। ____ आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने सूरिमंत्र की आराधना प्रारंभ की। अधिष्ठायक देव की ओर से उन्हें संकेत आया। ग्रंथों के अनुसार देवता ने द, न, आ - ये तीन अक्षर प्रदान किये। इस हिसाब से आचार्य दानधीर सूरि का विचार सुमतिसाधु सूरि जी को आया किंतु उसके 6 महीने में ही दानधीर सूरि जी का आकस्मिक कालधर्म हो गया। अतः सुमतिसाधु सूरि जी ने “अंकाना वामतो गतिः" इस न्याय के अनुक्रम से सर्व प्रकार से योग्य जानकर आचार्य हेमविमल सूरि जी को ही अपना क्रमिक उत्तराधिकारी घोषित किया एवं अन्तोत्गत्वा आचार्य आनंदविमल सूरि जी भविष्य में क्रियोद्धार करेंगे, यही भावना रखी।
आचार्य इन्द्रनन्दी सूरि जी से कुतुबपुरागच्छ एवं आचार्य कमलकलश सूरि जी से कमलकलश गच्छ निकला। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ :
जिनमंदिर-जिनप्रतिमाओं की स्थापना एवं उनके रक्षण के लिए आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने अनेक कार्य किए। इतिहास बताता है कि संघपति जावड़ ने 84 हजार चौखंडा (मुद्रा) खर्च कर उनका प्रवेश मांडवगढ़ में कराया और 11 लाख चौखंडा (मुद्रा) खर्च कर उनके हाथ में
महावीर पाट परम्परा
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