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शासन प्रभावना :
उपाध्याय विनयचंद्र जी के सन्निकट रहकर इन्होंने विद्याध्ययन किया। एक बार वि.सं 1094 के आसपास वे अपने विद्यागुरु के साथ पाटण में चैत्य-परिपाटी हेतु पधारे। इस समय पाटण में चैत्यवासियों का भारी प्रभाव था। संवेगी साधुओं के रहने के लिए योग्य स्थान / पोशाल नहीं थी।
मुनिश्री एक दिन थारापद्रगच्छ के चैत्य में भगवान् ऋषभदेव के दर्शन कर पास के स्थान में निवास कर रहे वादिवेताल आचार्य शांति सूरि जी के सरस व्याख्यान सुनने हेतु निरंतर 10 दिनों तक वे उनके स्थान पर जाते रहे। चित्त व बुद्धि की एकाग्रता व विद्याध्ययन में कुशाग्रता के कारण मुनिश्री के पास कोई पुस्तक या अध्ययन सामग्री न होते हुए भी गुरुदेव द्वारा पढ़ाया संपूर्ण पाठ उन्हें स्मरण रहा। आचार्य शांति सूरि जी के 32 शिष्यों में से कोई भी उनके पढ़ाए पाठ को धारण नहीं कर सका - इस बात का आचार्य शांति सूरि जी को खेद हुआ किंतु 10 दिन से आ रहे एक शैक्ष मुनि ने बिना पुस्तक सब कुछ याद रखा, तब उनको उनकी स्मरणशक्ति पर आश्चर्य हुआ, एवं प्रसन्नता हुई। शान्त्याचार्य ने मुनिश्री को कहा - मेरे लिए तो तुम धूल से निकले एक बहुमूल्य रत्न हो। तुम मेरे पास रहकर न्यायशास्त्र का अभ्यास करो। आचार्यश्री जानते थे कि पाटण में संवेगी साधुओं के उतरने योग्य स्थान नहीं है। अतः टंकशाल के पीछे सेठ दोहड़िया के घर में ठहरने की व्यवस्था की एवं न्यायशास्त्र - षड्दर्शन इत्यादि विषय पढ़ाए। मुनिचंद्र जी ने अथक परिश्रम से शास्त्रों का तलस्पर्शी अभ्यास किया। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी को आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने वि.सं. 1129 से वि.सं. 1139 के बीच किसी वर्ष सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया था। स्वयं आचार्य बनने के कुछ वर्ष बाद ही मुनिचंद्र जी को योग्य जानकर नेमिचंद्र सूरि जी ने सूरिपद प्रदान किया। उनका नाम मुनिचंद्र सूरि जी रखा गया।
सांभर नामक नगर में राजा अर्णोराज की सभा में आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी ने शैव (शिव मत उपासक) वादियों को परास्त किया। दिगम्बर वादी गुणचंद्र एवं श्वेताम्बर राजगच्छ के वादी धर्मघोष सूरि जी के मध्य शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें मुनिचंद्र सूरि जी ने धर्मघोष सूरि जी की सहायता की तथा वे जीत गए। उनकी बुद्धि, उनके तर्को को भेद पाना अत्यंत दुष्कर माना जाता था। अतः उन्हें 'तार्किकशिरोमणि' के विशेषण से विभूषित किया जाता था। वे कर्मप्रकृति प्राभृत और कषायप्राभृत के बहुत अच्छे जानकार थे। खंभात और नागौर के क्षेत्र में उनकी धर्मस्पर्शना प्रभावक रही।
महावीर पाट परम्परा
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