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42. आचार्य श्रीमद् सिंह सूरीश्वर जी
अद्भुत निष्ठा - अद्भुत शक्ति, मितभाषी संस्कार । सिंह सूरि जी समता सागर, नित् वंदन बारम्बार ॥
यथा नाम तथा गुण जिनवाणी की सिंह सम गर्जना कर जैनशासन का वर्चस्व स्थापित करने वाले आचार्य सिंह सूरि जी भगवान् महावीर की परमोज्ज्वल पाट परम्परा के 42वें पट्टप्रद्योतक बने। वे मितभाषी ( कम बोलने वाले), हितभाषी ( हित का बोलने वाले) एवं मिष्ठभाषी (मीठा बोलने वाले) आचार्यरत्न थे।
शासन प्रभावना :
आचार्य अजितदेव सूरि जी के पट्टधर सिंह सूरि जी समर्थवादी आचार्य थे। उनकी विद्वत्ता एवं तर्कशक्ति अद्भुत थी।
द्विसंधान काव्य ग्रंथ के अनुसार सिंह सूरि जी अत्यंत रूपवान् एवं सुकोमल शरीर संपदा के धनी थे। तत्कालीन समय में लोग उन्हें कामदेव के समान रूपवंत व मोहक मानते थे किंतु सिंह सूरि जी नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे एवं अपने संयम जीवन की साधना के बल से वे जगत्पूज्य बने ।
वि.सं. 1206 में सिंह सूरि जी ने आरासण तीर्थ में जिनप्रतिमाओं की अंजनश्लाका प्रतिष्ठा कराई। वह लेख आज भी विद्यमान है। गुजरात - मारवाड़ ही उनका प्रमुख विहार क्षेत्र रहा। साहित्य रचना :
प्रसिद्ध कवि श्रावक आसड द्वारा विरचित 'विवेकमंजरी' नामक ग्रंथ को शुद्ध कर उस पर 'विवेकमंजरी वृत्ति' नाम से टीका आचार्यप्रवर सिंह सूरीश्वर जी ने रची। आसड कवि का 'राजड' नाम का पुत्र बाल अवस्था में ही आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हो गया था। इससे आसड कवि को गहरा सदमा पहुँचा । दुःख एवं नकारात्मकता से परिपूर्ण आसड श्रावक को कलिकालगौतम कहे जाने वाले आचार्य अभयदेव सूरि जी ने अपने उद्बोधन से शांत कराया एवं धर्ममार्ग पर पुनः प्रवृत्त किया । आचार्यश्री के बोधवाक्यों का अनुसरण करते हुए कवि
महावीर पाट परम्परा
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