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1323 में पालनपुर में पल्लविया पार्श्वनाथ जिनालय के पट्टांगण में देवेन्द्र सूरि जी ने मुनि धर्मकीर्ति जी को उपाध्याय (वाचक) पद प्रदान किया। उस क्षण सभामंडप में केसर की दैवीय वृष्टि से समूचे संघ में आश्चर्य और आनंद व्याप्त हो गया।
वि.सं. 1327 में देवेन्द्र सूरि जी का कालधर्म हो गया एवं उसके 13 दिनों में ही आचार्य विद्यानंद सूरि जी का भी बीजापुर में कालधर्म हो गया। श्रीसंघ छत्रविहीन सा हो गया। संघ ने उपाध्याय धर्मकीर्ति को आचार्य पद प्रदान कर गच्छ का नायकत्व करने के दायित्व के प्रस्ताव का समर्थन किया। गुरुदेव के काल के महीने बाद वि.सं. 1328 में बड़गच्छीय संगौत्री वृद्धपोषालिक आ. क्षेमकीर्ति सूरि जी ने समयसूचकता वापरके उपाध्याय धर्मकीर्ति को बीजापुर में आचार्य पद प्रदान किया। उनका नूतन नाम 'आचार्य धर्मघोष सूरि' रखा गया एवं वे देवेन्द्र सूरि जी के पट्ट पर स्थापित किए गए।
आचार्य धर्मघोष सूरि जी अत्यंत विद्वान, चमत्कारी सिद्ध पुरुष एवं युगप्रधान सम प्रभावक आचार्य थे। उनके मांडवगढ़ पधारने पर गरीब श्रावक पेथड़ ने श्रावक के 12 व्रत उनके पास स्वीकार किए। गुरुकृपा से धीरे-धीरे वह धनवान् बना एवं 84 जिनालय, 7 ग्रंथभण्डार, कई संघ छ:रीपालित इत्यादि कार्य कराए। मात्र बत्तीस वर्ष की आयु में पेथड़शाह ने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया। यह सब गुरुदेव के आशीर्वाद से हुआ। धर्मघोष सूरि जी को अपने ज्ञान से पूर्वानुमान था कि पृथ्वीधर (पेथड़) यदि अभी परिग्रह परिमाण का अणुव्रत लेगा तो भंग हो जाएगा क्योंकि भविष्य में यह धनवान बनेगा। भंग के दोष से उन्होंने वह पंचमाणुव्रत की विस्तृत सीमा दी। पेथड़ जब माँडवगढ़ का मंत्री बना तब उसे गुरु की ऐसी आज्ञा का रहस्य समझ आया।
एक बार ब्रह्म मंडल नामक स्थान पर आचार्यश्री को सांप ने काट लिया। इससे संघ विचलित हो गया। सौ से अधिक उपाय उपाय किए किंतु कुछ भी सफल नहीं हुआ। तब धर्मघोष सूरि जी ने संघ को सात्वना देते हुए कहा कि पूर्व दिशा के दरवाजे के कठियार की लकड़ियों में विषहारिणी बेल है। उसको झूड के साथ घिसकर डंक के ऊपर लगाओ। संघ ने वैसा ही किया। आचार्यश्री जी को आराम भी आ गया एवं वे स्वस्थ हो गए किंतु शरीर पर ममत्व के भाव की आत्मग्लानि से वे जूझते रहे। अतः प्रायश्चित्त स्वरूप उन्होंने जीवन पर्यन्त सभी 6 विगय का त्याग कर दिया व जोवार की नीरस रोटी खाते थे। उनके ऐसे भाव संयम को सभी शत्-शत् नमन करते थे।
गोधरा में शाकिनी व्यंतरी देवी का इतना उपसर्ग था कि उपाश्रय के दरवाजे भी रात्रि महावीर पाट परम्परा
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