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गया। वि.सं. 1502 में मुनिसुंदर सूरीश्वर जी ने योग्य मुहूर्त देखते हुए रत्नचंद्र जी को सूरि (आचार्य) पद पर विभूषित किया एवं नूतन नाम 'आचार्य रत्नशेखर सूरि' प्रदान किया।
वि.सं. 1503 में विजय मुनिसुंदर सूरि जी का कालधर्म होने पर उन्होंने तपागच्छ के नायकत्व का दायित्व उनके कंधों पर आया।
दशवैकालिक सूत्र की वि.सं. 1511 में लिखी गई प्रति की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनके उपदेश से हाथादि परिवार ने 1,00,000 श्लोक प्रमाण ग्रंथों का प्रतिलेखन कराया था। इन्हीं के उपदेश से वि.सं. 1515 में श्रावक जइत्ता और उसकी पत्नी जयतलदेवी द्वारा विद्वद्जनों के पढ़ने के लिए 'पुष्पमाला प्रकरण' की प्रतिलिपि कराई गई।
अनेकों क्षेत्रों के राजाओं को इन्होंने प्रतिबोधित किया व धर्म के मार्ग पर अनुरक्त किया। पालीताणाा, राणकपुर आदि तीर्थों पर छ:री पालित संघ लेकर गए तथा सदुपदेश से योग्य स्थलों के जीर्णोद्धार कराए। साहित्य रचना :
आचार्य विजय रत्नशेखर सूरि जी का ज्ञान एवं भाषा के ऊपर उनका आधिपत्य उनके द्वारा रचित-संकलित-संपादित साहित्य में परिलक्षित होता है। उनके द्वारा रचित विभिन्न कृतियों में प्रमुख इस प्रकार हैं1) श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र पर अर्थदीपिका नामक वृत्ति (इसका संशोधन उपाध्याय श्री
लक्ष्मीभद्र गणि जी ने किया था।) श्राद्धविधि ग्रंथ की विधिकौमुदी नामक वृत्ति (वि.सं. 1506) आचार प्रदीप (4065 श्लोक प्रमाण वि.सं. 1516 में लिखा स्वतंत्र ग्रंथ, जिनहंस गणि
जी ने प्रणयन व संशोधन में सहायता की) 4) रत्नचूड़रास (वि.सं. 1510 के आसपास) 5) षडावश्यक वृत्ति
6) लघुक्षेत्रसमास-अवचूरि 7) हैमव्याकरण-अवचूरि
8) प्रबोध-चंद्रोदय-वृत्ति 9) मेहसाणा-मंडन-पार्श्वनाथ स्तवन 10) नवखंड पार्श्वनाथ जिन स्तवन
महावीर पाट परम्परा
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