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52. आचार्य श्रीमद् रत्नशेखर सूरीश्वर जी
शासनरत्न आचार्य रत्नशेखर, साहित्य अपना अपार।
श्रुतसेवा पूर्ण श्रुतसमर्पण, नित् वंदन बारम्बार॥ शासन नायक तीर्थंकर महावीर स्वामी की 52वीं पाट पर विभूषित आचार्य रत्नशेखर सूरि जी अमेय मेधा व अतुल विद्वत्ता के धनी थे। इनकी जिह्वा व कलम दोनों देवी सरस्वती के कृपा प्रासाद रहे। अपने साहित्य एवं हस्तप्रतिष्ठित स्मारकों के द्वारा इनका नाम शासन प्रभावना में अग्रणीय रहा। जन्म एवं दीक्षा : ____ इनका जन्म वि.सं. 1457 (मतांतर से 1452) में हुआ था। बाल्यकाल में आचार्य साधुरत्न सूरि जी महाराज के सामीप्य से इनमें वैराग्य के बीज अंकुरित हुए एवं उनकी दीक्षा की भावना वि.सं. 1463 में साकार हुई। इनकी दीक्षा आचार्य सोमसुंदर सूरि जी के हाथ से सम्पन्न हुई एवं इनका नाम 'मुनि रत्नचंद्र' रखा था। प्रखर बुद्धि के धनी मुनिश्री के ज्ञान के प्रति अनुराग-वश वे शीघ्र ही शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं गूढ़ ज्ञानी बने। शासन प्रभावना :
ज्ञानार्जन के तीव्र उत्कंठा के कारण उन्होंने अनेक गीतार्थ गुरुदेवों के विद्या-शिष्य बन शास्त्राभ्यास में निपुण बने। आचार्य भुवनसुंदर सूरि जी, महोपाध्याय लक्ष्मीभद्र गणि जी आदि गीतार्थों को अपना शिक्षा गुरु बनाया व ज्ञान की पिपासा को तृप्त करते गए। बाल अवस्था में ही वे वाद विद्या में पारंगत हो गए। यौवन वय में एक बार उन्होंने दक्षिण के वादियों को परास्त कर दिया। इससे प्रभावित होकर खंभात के एक बांबी नामक विद्वान ने उन्हें 'बाल-सरस्वती' का बिरूद दिया।
मुनि रत्नचंद्र विजय जी की विद्वत्ता एवं योग्यता देखते हुए वि.सं. 1483 में उन्हें पंडित पद दिया गया। देवगिरि (दौलताबाद) के बहुश्रुत श्रावक महादेव श्रेष्ठी की यथोचित विनती को स्वीकार कर वि.सं. 1493 में महोत्सवपूर्वक उन्हें वाचक (उपाध्याय) का पद प्रदान किया
महावीर पाट परम्परा
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