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जोड़ा | सेठ नरसिंह ओसवाल के पुत्र मालजी को उपदेश देकर वि.सं. 1437 में आश्विन वदी 1, शनिवार को खंभात में 'धर्मसंग्रहणी' ग्रंथ लिखवाया। मलयसिंह पोरवाल की पत्नी साउदेवी को उपदेश देकर पाटण में वि.सं. 1444 में श्री आवश्यक सूत्र, चैत्यवंदन चूर्णि आदि ग्रंथ ताड़पत्र व कागज पर लिखवाए। आबू के 'सुदर्शना चरित्र' को लिखवाकर पाटण ज्ञानभंडार को भेंट करवाई इत्यादि ।
आचार्य जयानंद सूरि जी और आचार्य देवसुंदर सूरि जी के उपदेश से उनके गुरुदेव के नाम पर खंभात में वि.सं. 1447 में भट्टारक सोमंतिलकसूरि ग्रंथभंडार स्थापित हुआ ।
जैनधर्म के कट्टर विरोधी वडोदरा के मंत्री सारंग के वेदों-उपनिषदों के प्रश्नों को भी समाधान प्रदान कर विद्वत्ता का परिचय दिया एवं उसे भी जैन बनाया। इसी प्रकार इनके लक्षणों से प्रभावित होकर पाटण में 300 योगियों के गुरु उदयीपा योगी ने देवसुंदर सूरि जी के पास आकर वंदन व साष्टांग नमस्कार किया। इस प्रकार जैनों व जैनेत्तरों में अपना प्रभाव छोड़ते हुए जिनशासन प्रभावना के अनेक कार्य पूज्य आचार्य देवसुंदर सूरि जी ने किए। इनके एक अज्ञात शिष्य ने उस काल में रचे ग्रंथ में देवसुंदर जी को गुरु रूप में वंदन करते हुए तत्कालीन भाषा में लिखा है
अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय, साहु सुगुरु देवसुंदर सूरि पाय । वंदिय सुय सामणि समरेवि, धम्म कक्कप भणिसु संखेति ||
साहित्य रचना :
आचार्य देवसुंदर सूरि जी द्वारा लिखा गया 'स्तंभन पार्श्वनाथ स्तवन' उपलब्ध होता है। यह 25 श्लोकों में निबद्ध भक्तिप्रधान कृति है। इनकी प्रेरणा से इनके शिष्यरत्नों ने अनेकानेक साहित्य रचा। इनके सानिध्य में अनेक ज्ञानभंडार विकसित हुए ।
संघ व्यवस्था :
आचार्य देवसुंदर सूरि जी के नायकत्व में तपागच्छ उन्नति को प्राप्त था। शुद्ध समाचारी का पालन करना, आपस में द्वेष के बजाए प्रेम की स्थापना करना, आगम के प्रत्येक वचन के प्रति वफादारी रखना एवं आत्मा का कल्याण करना, ऐसे चतुर्मुखी आधार पर संघ का उन्होंने संचालन किया । इनका शिष्य परिवार बृहद् था, उसमें विशेष रूप से 5 शिष्य आचार्य पद को प्राप्त हुए
महावीर पाट परम्परा
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