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51. आचार्य श्रीमद् मुनिसुंदर सूरीश्वर जी
सहस्त्रावधानी सूरि मुनिसुंदर जी, साहित्य रत्न दातार।
सरस्वती लब्ध प्रसाद गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ भगवान् महावीर की 51वीं पाट परम्परा पर विभूषित एवं अतिप्रसिद्ध संतिकरं स्तोत्र के रचयिता आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी सिद्धसारस्वत विद्वान् व्यक्तित्त्व थे। अपने अपरिमित ज्ञान के द्वारा इन्होंने श्रुतसागर के अनेक मोती हमें प्रदान किए। उनकी सूरिमंत्र की साधना भी अत्यंत दुष्कर थी, जिसके बल पर उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की। जन्म एवं दीक्षा :
आचार्य विजय मुनिसुंदर सूरि जी का जन्म वि.सं. 1436 में शुभ नक्षत्र में हुआ। उनकी स्मरणशक्ति अपूर्व थी। सभी उनकी याद्दाश्त से अत्यंत प्रभावित थे। मात्र 7 वर्ष की अल्पायु में वि.सं. 1443 में उनकी दीक्षा हुई। बचपन से ही उन्हें ज्ञानार्जन में रुचि थी। पढ़ना और पढ़ते रहना ही उन्हें सबसे अधिक प्रिय लगता था। सभी गुरुदेवों को उनमें भविष्य का एक विद्वान् संत दिखता था। देवसुंदर सूरि जी के हाथों से इनकी दीक्षा हुई। ये सोमसुंदर जी के प्रमुख शिष्य और जयानंद सूरि जी के विद्याशिष्य थे। इनका नाम - 'मुनि मोहननंदन' रखा गया। शासन प्रभावना :
अपने बुद्धिकौशल एवं स्मरणशक्ति के कारण वे सहस्त्रावधानी थे। सहस्त्रावधानी यानि एक हजार प्रश्नों को सुनकर उनको याद रखना एवं कोई भी संख्या बोलने पर उनके द्वारा उस नंबर के प्रश्न का उत्तर देना। तथा एक हजार नामों को धारण कर उन्हें उसी क्रम में सुनाना इत्यादि। मुनि मोहननंदन (मुनिसुंदर) तो 108 कटोरी की आवाज सुनकर उनमें भी भेद कर पाते थे, ऐसे प्रतिभासंपन्न थे। उन्हें उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया गया और वे उपाध्याय मुनिसुंदर के नाम से विख्यात हुए। मात्र 19 वर्ष की आयु में उन्होंने न्याय, व्याकरण और काव्य, ये 3 विषयों के परिचयात्मक 'त्रैवेद्यगोष्ठी' ग्रंथ लिखा।
आचार्य सोमसुंदर सूरि जी ने वि.सं. 1478 तक किसी को भी पट्टधर स्थापित नहीं किया था। एक बार वडनगर निवासी सेठ देवराज श्रावक ने गुरुदेव को विनती की, "गुरुदेव! आप
महावीर पाट परम्परा
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