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अपने पाट पर योग्य गच्छनायक की स्थापना कर लक्ष्मी के सदुपयोग का लाभ मुझे दो। " आचार्यश्री की दृष्टि मुनिमंडल पर गई एवं उपाध्याय मुनिसुंदर गणी पर दृष्टि स्थिर हुई। देवसुंदर सूरि जी के सेवा में 108 हाथ लंबा पत्र ' विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक काव्य मुनिसुंदर जी ने रचा जो सभी को सिद्धसेन दिवाकर जी की याद दिलाता था। वे सदा प्रसन्नचित्त रहते एवं सुविशुद्ध आचरण के धनी थे। अतः उनकी योग्यता को देखते हुए वड़नगर में महोत्सव करके सोमसुंदर सूरि जी ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया तथा अपने पाट पर स्थापित होने का महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा। उन्हें 'आचार्य मुनिसुंदर सूरि' नाम प्रदान किया गया।
एक बार खंभात में विद्वसभा में उन्होंने अपने ज्ञान की गंगा प्रवाहित की । दक्षिण देश के किसी पंडित कवि ने उन्हें 'श्याम (काली) सरस्वती' का बिरूद प्रदान किया। वादकुशल होने से उन्हें 'वादिगोकुलसांड' का भी विशेषण दिया गया।
आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने सूरिमंत्र की 24 बार विधिपूर्वक पीठिका सहित आराधना की। छट्ठ-अठ्ठम आदि तपस्या भी वे नियमित रूप से करते थे। सूरिमंत्र की सिद्धि एवं तपस्या के प्रभाव से देवी पद्मावती आदि देवियाँ - आचार्यश्री को प्रत्यक्ष थी एवं अनेकों बार वंदन करने आती थी। अपनी प्रतिबोधशक्ति के बल पर 24 बार उन्होंने चंपकराज आदि राजाओं से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के प्रजा पर लगे कर (टैक्स) माफ कराए व अमारि प्रवर्तन (जीवरक्षा) के विविध कार्य किए।
सिरोही (वेलवाड़ा) में उत्पन्न दुष्ट देवी के मरकी रोग के उपद्रव को शांत करने हेतु प्राकृत में 13 गाथा वाले महाप्रभावक संतिकरं स्तोत्र की रचना की, जो आज भी देवसिअ प्रतिक्रमण में, प्रत्येक घर में बोला जाता है। यह रचना वि.सं. 1502 में की।
साहित्य रचना :
मुनिसुंदर सूरि जी द्वारा रचित अनेकों ग्रंथ, स्तवन आदि मिलते हैं। देवसुंदर सूरि जी को भेजा 108 हाथ लंबा महाविज्ञप्तिपत्र - त्रिदशतरंगिणी के नाम से विख्यात था। साहित्य के क्षेत्र में इसका स्थान अजोड़ है। इसमें प्रासाद, चक्र, कमल, सिंहासन, अशोक वृक्ष, भेरी इत्यादि चित्रों के साथ 3 स्तोत्र एवं 61 तरंगों के साथ उन्होंने इसकी रचना की थी किंतु आज उसमें से केवल 'गुर्वावली' नामक 500 श्लोक (गद्य) वाला विभाग प्राप्त हैं, जिसमें महावीर स्वामी से लेकर उनके समय तक के तपागच्छ के आचार्यों का संक्षिप्त वर्णन है। अपने ज्ञान से परिलक्षित
महावीर पाट परम्परा
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