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देवसुंदर सूरि जी के साथ मिलकर पाटण और खंभात के ज्ञानभंडारों के ताडपत्रीय ग्रंथ कहीं नष्ट न हो जाए, इस भावना से उन्हें पुनः कागजों पर लिखवाया। मुसलमानों के बढ़ते प्रभाव से जैन मुनि, जिन प्रतिमाएं एवं जिनवाणी स्वरूप शास्त्रों को क्षति हो रही थी किंतु आचार्य श्री जी ने यथाशक्ति सबका डटकर सामना किया।
वि.सं. 1470 में उन्होंने मांडवगढ़ में चातुर्मास किया। संग्राम सिंह सोनी श्रावक गुरुदेव की वाणी से इस प्रकार प्रभावित था कि भगवती सूत्र पर गुरुदेव के व्याख्यान में " गोयमा " शब्द आता, तो वह एक-एक सुवर्ण मोहर अर्पित करता था । उसने 36,000 सोनामोहरें, उसकी माता ने 18,000 तथा उसकी पत्नी ने 9000 सोनामोहरें चढ़ाई थी। इस ज्ञानद्रव्य से उसने सचित्र कल्पसूत्र की प्रतियां, कालिकाचार्य कथा आदि लिखवाकर साधु-साध्वियों को वोहराई। सोमसुंदर सूरि जी के मुख से लक्ष्मी और सरस्वती दोनों, प्रवाहित होती थी, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। आचार्यश्री जी के उपदेश से शा. मेघजी ओसवाल ने भी पावागढ़, सोपारा, सुल्तानपुर, महाकांठा आदि अनेकों जगह जीर्णोद्धार, उपाश्रय निर्माण, जिनप्रतिमा प्रतिष्ठा आदि के लाभ लिए ।
आज जो नयनरम्य-नयनाभिराम श्री राणकपुर तीर्थ दृष्टिगोचर होता है, उसकी प्रतिष्ठा का श्रेय भी आचार्यश्री को ही जाता है। धरणाशाह पोरवाल द्वारा निर्मित चतुर्मुख त्रैलोक्य दीपक जिनप्रासाद (राणकपुर) की प्रतिष्ठा आचार्य सोमसुंदर सूरि जी ने फाल्गुन वदि 5, वि.सं. 1496 में कराई। उस समय 4 आचार्य, 9 उपाध्याय एवं 500 मुनिवर विद्यमान थे।
आचार्य सोमसुंदर सूरि जी ने पौष सुदि 5. वि.सं. 1478 में मेवाड़ में जावर ग्राम में श्रावक धनपाल के संघ में शांतिनाथ जी के जिनप्रासाद की प्रतिष्ठा कराई। उस अवसर पर उनके साथ आचार्य मुनिसुंदर सूरि, आचार्य जयचंद्र सूरि, आचार्य भुवनसुंदर सूरि, आचार्य जिनसुंदर सूरि, आचार्य जिनकीर्ति सूरि, आचार्य विशालराज सूरि, आचार्य रत्नशेखर सूरि, आचार्य उदयनंदी सूरि, महोपाध्याय सत्यशेखर गणी, महो. सूरसुंदर गणि आदि सुविशाल श्रमण - श्रमणी परिवार उपस्थित था। इसी प्रकार पोसीना के नगरसेठ विजयसिंह के दानवीर पुत्र गोपाल ने पोसीना में पार्श्वनाथ जी के 2 मंडपवाला जिनालय बंधवाया । आचार्य श्री जी ने उसकी प्रतिष्ठा वि.सं. 1477 में की। गोपाल सेठ के पुत्र अर्जुन ने भी वि.सं. 1491 में भगवान् ऋषभदेव जी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। आचार्यश्री जी के उपदेश से सोनी संग्रामसिंह ने मांडवगढ़ में सुपार्श्वनाथ जी का, मक्षी
महावीर पाट परम्परा
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