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इनके द्वारा रचित 9 पद्यों में जिनस्तवन में प्रत्येक पद्य का पूर्वार्ध (पहला भाग) संस्कृत में है और उत्तरार्ध (अगला भाग) प्राकृत में है, जो अत्यंत विशिष्ट है।
कालधर्म :
आचार्यश्री जी मंत्र कला में पारंगत थे। सर्व प्रकार के मंत्रों के ज्ञाता थे। अपने अंत समय में आचार्य सोमप्रभ सूरि जी को उन्होंने विशिष्ट पुस्तिका भेंट की किंतु उन्होंने भी 'गुरुभिर्गीयमानायां मंत्रपुस्तिकायां यच्छतचरित्रं मंत्रपुस्तिकां च' इत्यादि' शब्द कहकर योग्य न समझते हुए स्वीकार न की। भविष्य में कोई इसका दुरूपयोग न करे, इसीलिए धर्मघोष सूरि जी और सोमप्रभ सूरि जी ने पुस्तक को जलशरण कराया।
माघ सुदि 13 वि.सं. 1349 में धर्मघोष सूरि जी के उपदेश से दियाणा में ग्रंथ भण्डार की स्थापना की गई। शासन के विविध कार्यों को संपादित करते हुए वि.सं. 1357 में 55 साल का चरित्र पालते हुए धर्मघोष सूरि जी स्वर्गवासी बने। उनके पाट पर आ. सोमप्रभ सूरि जी विराजित हुए।
महावीर पाट परम्परा
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