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कुष्ठ रोग द्वारा दंडित कर रही है। लोकापवाद सुनकर अभयदेव सूरि जी का विश्वास डोल गया। लेकिन शासन हितैषी धरणेन्द्र देव ने आचार्यश्री को आश्वस्त किया। धरणेन्द्र देव के निवेदन पर श्रावक संघ के साथ आचार्य अभयदेव सूरि जी स्तम्भन गाँव में आए। वहाँ उन्होंने 32 श्लोकों वाले 'जयतिहुअण स्तोत्र' की रचना की जिससे पार्श्वनाथ जी की दिव्य प्रतिमा सेढिका नदी से प्रकट हुई तथा आचार्य अभयदेव का कुष्ठ रोग भी चला गया। इसके बाद विरोधी जनों की भ्रान्तियाँ भी मिट गई। धरणेन्द्र देव ने स्तोत्र की 2 प्रभावक गाथाओं को लुप्त कर दिया। आगम साहित्य के निष्णात् विद्वान् आचार्य अभयदेव जी 16 वर्ष की आयु में आचार्य बने एवं 67 वर्ष की आयु में कालधर्म को प्राप्त हुए।
महावीर पाट परम्परा
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