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37. आचार्य श्रीमद् देव सूरीश्वर जी
दिव्य रूप तथा दिव्य स्वरूप, दिव्य आत्म श्रृंगार । दिव्यविभूति श्री देव सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार ॥
भगवान् महावीर की 37वीं पाट पर आचार्य श्रीमद् विजय देव सूरि जी म.सा. हुए। गुजराती पट्टावली में उनका दूसरा नाम विजय अजितदेव सूरि उल्लिखित है किन्तु उनका नाम देव सूरि ही प्रसिद्ध रहा। जीवन वृत्तान्त :
आचार्य देव सूरि जी बहुत सुंदर रूप के धनी थे। उनकी शरीर संपदा - रूपसंपदा सभी को आकर्षित करती थी। इसीलिए गुजरात प्रदेश के हालार नगर के राजा कर्णसिंह ने उन्हें 'रूपश्री' बिरुद् प्रदान किया। आचार्यश्री ने प्रतिबोध देकर उस राजा कर्णसिंह (कर्णदेव) को जैनधर्मानुयायी बनाया एवं शासन प्रभावना के विविध कार्य संपादित किए।
उनके प्रतिबोध एवं उपदेश शक्ति से प्रभावित होकर 'गोप' नामक श्रावक ने 9 नूतन जिनमंदिर बनवाए एवं उनसे प्रतिष्ठा करवाई। आचार्य देव सूरि जी का विहारक्षेत्र विस्तृत था। मालवा में भी कुछ 'पौरू' गृहस्थों को प्रतिबोध देकर उन्हें पोरवाल जैन बनाने का श्रेय भी देव सूरि जी को जाता है।
वि.सं. 1088 में आबू के विमलवसही मंदिर में ऋषभदेवजी आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा के समय ये गुजरात में विचर रहे थे। चंद्रगच्छ में राजगच्छ के आचार्य शीलभद्र उस प्रतिष्ठा में सम्मिलित हुए। इतिहासविदों को अनुसार उनका कालधर्म वि.सं. 1110 के आसपास अथवा 1125 के आसपास हुआ।
समकालीन प्रभावक आचार्य ●
नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि जी :
आचार्य अभयदेव जैन परम्परा के इतिहास के प्रसिद्ध आचार्य हैं। पत्यपद्रपुर में रात्रि के समय आचार्य अभयदेव सूरि जी ध्यान में बैठे थे। तभी शासनदेवी प्रकट हुई एवं निवेदन किया
महावीर पाट परम्परा
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