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कि- " हे मुने! आचार्य शीलांक व कोट्याचार्य विरचित टीका साहित्य में सिर्फ आचारांग और सूत्रकृतांग आगम की टीकाएं ही सुरक्षित हैं। शेष समय के दुष्प्रभाव से लुप्त हो गई हैं। अतः इस क्षतिपूर्ति के लिए संघ हितार्थ आप प्रयत्नशील बनें एवं टीका रचना का कार्य प्रारंभ करें । '
आचार्य अभयदेव सूरि जी ने कहा " देवी! मेरे जैसे जड़मति व्यक्ति के लिए सुधर्म स्वामी जी कृत आगमों को पूर्णतः समझना भी कठिन है। अज्ञानवश कहीं उत्सूत्रप्ररूपणा हो जाने पर यह कार्य अनंत संसार की वृद्धि का निमित्त बन सकता है। शासनदेवी के वचनों का उल्लंघन करना भी उचित नहीं । " तब देवी ने कहा “सिद्धांतों के समुचित अर्थ को ग्रहण करने में सर्वथा योग्य समझकर ही मैंने ऐसी प्रार्थना की। आगम पाठों की व्याख्या में जहाँ भी आपको संदेह हो, उस समय मेरा स्मरण कर लेना। मैं श्री सीमंधर स्वामी से पूछकर आपके प्रश्नों का समाधान देने का प्रयत्न करूँगी।"
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उस समय आगमों की प्रतिलिपियों में अनेक गलतियां थीं, आगमों की अध्ययन परम्परा भिन्न-भिन्न थी, एवं अर्थ विषयक नाना धारणाएं थीं। फिर भी अत्यंत सावधानी पूर्वक एकनिष्ठा से आयम्बिल तप प्रारंभ किया और टीकाएं रची
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स्थानांग सूत्रवृत्ति
समवायांग सूत्रवृत्ति
व्याख्या प्रज्ञप्ति वृत्ति
ज्ञाताधर्मकथा वृत्ति
उपासकदशांग वृत्ति
अंतकृत्-दशांग वृत्ति
अनुत्तरौपपातिक सूत्रवृत्ति
प्रश्नव्याकरण सूत्रवृत्ति विपाक सूत्रवृत्ति
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टीका रचना करने के बाद एक बार अभयदेव सूरि जी धवलकपुर पधारे। निरंतर आयंबिल एवं रात्रि जागरण से उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। विरोधीजनों ने उनके अपयश हेतु ऐसी अफवाह फैलायी कि अभयदेव सूरि जी द्वारा टीका रचना में उत्सूत्र प्ररूपणा के कारण शासनदेवी उन्हें
महावीर पाट परम्परा
14250 पद्य परिमाण (वि.सं. 1120) 3575 श्लोक परिमाण (वि.सं. 1120)
18,616 श्लोक परिमाण (वि.सं. 1128)
शु
3800 पद्य परिमाण
1812 पद्य परिमाण
899 पद्य परिमाण
192 श्लोक परिमाण
4630 पद्य परिमाण
900 पद्य परिमाण
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