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रस में निमग्न एवं प्रसन्न वदन थे। योगी ने सर्पों को आचार्यों के पास बढ़ने का संकेत दिया। देव - गुरु-धर्म का स्मरण करते हुए आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने अपनी कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली से अपने आसपास वलयाकार (गोलाकार) 3 रेखाएं बनाई। उनकी संयम शक्ति एवं ऋद्धि-सिद्धि के प्रभाव से एक भी सर्प उस वलय आकार के अंदर प्रवेश ही न कर सका। योगी कान्हडीओ का क्रोध सातवें आसमान पर था ।
अंततः उसने सबसे विषैला सिंदूरी सर्प भेजा । किन्तु वह भी सर्वदेव सूरि जी के पास जा ही नहीं पाया। उपाश्रय के पास ही पीपल के पेड़ पर निवास कर रही 64 योगिनी देवियों में से कुरूतुल्ला नाम की योगिनी देवी ने ये सब दृश्य देखे । आचार्यश्री के संयम व तप से प्रभावित होते ही वह उपाश्रय में आई एवं गुरुरक्षा हेतु सभी सांपों व सिंदुरी सांप का मुँह बंद करके अन्यत्र छोड़कर आई । सर्वदेव सूरि जी के ऐसे अचिन्त्य प्रभाव को देखते ही योगी शर्म से पानी-पानी हो गया एवं माफी माँग कर चला गया। अपनी शक्तियों का आ. सर्वदेव सूरि जी ने सदा शासनहित में उपयोग किया।
वि.सं. 988 में आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने हथुड़ी राव जगमाल को सपरिवार जैन बनाया एवं आमड गौत्र की स्थापना की। वि.सं. 1021 में आबू के पास ढेलडिया के पवार संघराव को सपिरवार जैन बनाया एवं आचार्यश्री की प्रेरणा से उनके पुत्र श्री विजयराव ने यात्रासंघ निकाला तथा ‘संघवी' गौत्र की स्थापना की । सर्वदेव सूरि जी की प्रतिबोधकुशलता भी विशिष्ट थी । चन्द्रावली के राजा अरण्यराज परमार के मंत्री कुंकुण ने चंद्रावती में विशाल जिनप्रासाद बनवाए । वि.सं. 1010 में आचार्यश्री के हाथ से प्रतिष्ठा कराई तथा उनके कुशल प्रतिबोध से मंत्री कुंकुण ने वैराग्य- वसित होकर उनके पास दीक्षा ग्रहण की।
प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा :
आचार्य सर्वदेव सूरि जी के सदुपदेश से राजा रघुसेन ने रामसेन नगर ( रामसैन्यपुर) में प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया व 'राजविहार' की स्थापना की। यह स्थान गुजरात राज्य के बनासकाठा जिलांतर्गत 'डीसा' गांव से 25 कि.मी. दूर स्थित है। आज भी गांव से 1 मील दूर धातु की एक प्रतिमा का परिकर प्राप्त होता है जिसमें प्रतिष्ठा का लेख उत्कीर्ण है। वहाँ पर वि.सं. 1010 में सर्वदेव सूरि जी ने अंजनश्लाका कर अपने करकमलों से श्री चन्द्रप्रभ स्वामी, श्री अजितनाथ स्वामी, श्री ऋषभदेव स्वामी इत्यादि प्रतिमाओं को प्राणप्रतिष्ठित कराया।
महावीर पाट परम्परा
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