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35. आचार्य श्रीमद् उद्योतन सूरीश्वर जी
भावोद्योतक उद्योतन सूरि जी, बड़ गच्छ अलंकार।
करुणावृष्टि-दूरदृष्टि, नित् वंदन बारम्बार॥ भगवान् महावीर की परम्परा के 35वें पट्टधर आचार्य उद्योतन सूरि जी से 'बड़गच्छ' नाम प्रचलित हुआ। उनके निर्मल व्यवहार, कठोर आचार एवं ज्ञान-विचार के बल से शासन की महती प्रभावना हुई एवं उनका शिष्य परिवार वटवृक्ष की भाँति विस्तृत हुआ। जीवन वृतान्त :
आचार्य विमलचंद्र सूरि जी के कालधर्म पर उनके पट्ट पर उद्योतन सूरि जी अलंकृत हुए। वे दीर्घजीवी-लंबी आयुष्य के धनी थे। उनका आचार्य पर्याय काफी अधिक था। उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति इत्यादि ग्रंथों में उन्हें चंद्रमा समान शीतल, पर्वत की भाँति स्थिर, अशुभ भावना से रहित, क्षमाधर, जीवन्त धर्मस्वरूप, निर्मल गुणवाला, विद्यावान् इत्यादि विशेषणों से अलंकृत किया है।
आचार्य उद्योतन सूरि जी का चारित्र भी उत्तमोत्तम था। वे नवकल्प विधान के अनुसार ही विहार करते हुए जिनाज्ञा का पालन करते थे। वे प्रतिदिन एक बार ही आहार लेते थे अर्थात् जीवनपर्यन्त एक भक्त एकासणा करते थे। उनके द्वारा वि.सं. 937 में प्रतिष्ठित भगवन्तों की प्रतिमा आज भी प्राप्त होती है। उनका विचरण क्षेत्र बहुधा गुजरात, राजस्थान इत्यादि रहा। अनेकों तीर्थयात्राएं कर स्व-पर कल्याण की भावना में अनुरक्त उद्योतन सूरि जी का पृथ्वीतल पर विचरण रहा।
संघ व्यवस्था :
उद्योतन सूरि जी विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले उद्भट विद्वान थे। वि.सं. 994 तदनुसार वीर संवत् 1464 में आचार्य उद्योतन सूरि जी आबू पर्वत की तलहटी में अवस्थित टेलीपुर की सीमा के वन में दिन ढलते-ढलते विहार करके पहुँचे। रात्रि विश्राम व साधना के उद्देश्य से आचार्यश्री जी एवं समस्त श्रमण परिवार वन के एक विशाल वटवृक्ष के नीचे ठहरे। आधी रात में उद्योतन सूरि जी ने आकश में देखा कि रोहिणी शकट में बृहस्पति प्रवेश
महावीर पाट परम्परा
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