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शासन प्रभावना:
अपनी आयु अल्प जानकर आ. समन्तभद्र सूरि जी ने उपाध्याय देवचंद्र को आचार्य पद प्रदान कर नाम 'आचार्य देव सूरि' रखा तथा अपना पट्टधर घोषित किया। यह बात लगभग वी.नि. 653 की है। किन्तु शरीर से वृद्ध होने के कारण वे वृद्धदेव सूरि जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। कोरंटक नगर में ही मंत्री नाहड़ तथा उसका भाई सालिग रहते थे। वृद्धदेव सूरि जी ने उनकी जैनधर्म पर श्रद्धा को दृढ़ किया। आसोज सुदि 9 की तिथि पर दोनों भाइयों की गौत्रदेवी चंडिका पाड़ा (एक जानवर) का बलिदान माँगती थी। नाहड़ मंत्री ने वृद्धदेव सूरि जी को इस बात से अवगत कराया एवं उपाय पूछा।
आचार्य वृद्धदेव सूरि जी की साधनाशक्ति बहुत ऊँची थी। रात्रि के समय उन्होंने अपनी शक्ति से गौत्र, देवी चामुण्डा (चंडिका) को बुलाया एवं सिंहनाद किया - देवी! तू अपने पूर्वभव का स्मरण कर। हिंसा के घृणित कार्य तुम्हारे योग्य नहीं हैं। पूर्वभव में तू धनसार श्रेष्ठी की पत्नी तथा जिनवचनानुरागी परम श्राविका थी। पंचमी को उपवास करने के कारण तूने नए वस्त्र पहने थे। अपने पुत्र को घर में छोड़ तुम जिन मंदिर जाने के लिए घर से निकल गई। चंचलता के कारण तुम्हारा पुत्र 'माँ-माँ' कहता हुआ तुम्हारे पीछे आने की कोशिश करता रहा। उसी समय तुम्हारे नए वस्त्रों की आवाज से एक पाड़ा भड़क गया तथा तुम्हारे पीछे आ रहे पुत्र पर प्रहार कर दिया। दुर्भाग्य से पुत्र अकस्मात् ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। अपने पुत्र की अंतिम चीख सुनकर व उसकी अंतिम अवस्था देखकर तुम्हारा हृदय भी बंद हो गया। मृत्यु पाकर तुम चामुंडा नाम की देवी बनी एंव पाड़ों के प्रति क्रूर वैर भाव के कारण अपने पुत्र की मृत्यु तिथि - आसोज सुदि 9 को पाड़ों की बलि लेने लगी।" तत्पश्चात् गुरुदेव ने देवी को अहिंसा धर्म का उपदेश दिया। अपना पूर्वभव तथा गुरुवाणी सुन देवी सम्यग्धर्मी बनी। नाहड़ मंत्री भी पापकार्य से मुक्त हुआ।
आ. वृद्धदेव सूरि जी के सदुपदेश से नाहड़ मंत्री ने 72 जिनालयों का निर्माण कराया। वीर निर्वाण 595 में कोरंटा में, वीर निर्वाण 670 में सांचोर में इत्यादि स्थानों पर जिनप्रतिमाओं की अंजनश्लाका - प्रतिष्ठाएं करवाई। नाहड़ मंत्री ने ही उनके उपदेश से सत्यपुर में महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित की। अपनी अंतिम अवस्था में मुनि प्रद्योतन को आचार्य बनाकर वीर निर्वाण 673 अर्थात् वि.सं. 203 में समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए।
महावीर पाट परम्परा
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