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25. आचार्य श्रीमद् नरसिंह सूरीश्वर जी
पट्टसिंहासन नरसिंह सूरि जी, प्रतिबोध कुशल विचार । अमारिप्रवर्तक, आत्मसाधक, नित् वंदन बारम्बार ||
शासनपति महावीर स्वामी के क्रमिक 25वें पट्टधर आ. नरसिंह सूरि जी तथा गुण, नरों में सिंह की भाँति जिनवाणी की निर्भीक गर्जना करने वाले हुए।
एक बार वे अपने शिष्य समुदाय सहित नरसिंहपुर नगर में पधारे । यहाँ पर एक मिथ्यात्वी यक्ष भैंसों-बकरों की बलि लिया करता था। गाँव के लोग भी मरणभय से भयभीत होकर इस प्रकार की जीव हिंसा किया करते थे। आ. नरसिंह सूरि जी रातभर यक्षायतन में रहे। यक्ष क्रोधित होकर आचार्यश्री को उपसर्ग देने के लिए प्रयत्नशील हुआ। किंतु आचार्यश्री के संयम के प्रभाव से उनका बाल भी बाँका नहीं कर सका। रात्रि भर में नरसिंह सूरि जी ने यक्ष को इस प्रकार प्रतिबोधित कर डाला कि यक्ष ने न केवल जीवहिंसा का त्याग किया बल्कि शासन प्रभावना के कार्यों में आचार्यश्री की सहायता की।
इनके लिए कहा गया है
यथा नाम
नरसिंहसूरिरासीदतोऽखिलग्रन्थपारगो येन । यक्षो नरसिंहपुरे, मांसरति त्याजितः स्वगिरा ॥
अर्थात् - नरसिंह सूरि जी, समस्त सिद्धांतों और ग्रंथों के पारगामी थे। उन्होंने नरसिंहपुर में सर्वभक्षी यक्ष को प्रतिबोध कर मांस भक्षण का त्यागी बनाया।
महावीर पाट परम्परा
नरसिंह सूरि जी प्रखरवक्ता एवं सफल उपदेशक थे। अमरकोट तथा आसपास के नगरों में नवरात्रि पर्व के आठवें दिन पाड़ा (जानवर) का बलिदान लिया जाता था। उन्होंने वो भी बंद कराके अनेकानेक मूक पशुओं की प्राणरक्षा एवं लोगों को भयंकर कर्म बंधन से बचाया। मेवाड़ के खुमाण कुल के सूर्यवंशी राजपूतों को भी जिनधर्म का मर्म बतलाकर उनकी आस्था जैनधर्म में स्थिर की। खोमाणकुल के ही तेजस्वी राजकुमार समुद्र ने उनसे प्रतिबोधित होकर दीक्षा ग्रहण की। अपने शिष्यों का चन्द्रमा की भांति पूर्ण विकास कर उन्हें योग्य दायित्व दिए। आचार्य समुद्र सूरि जी को गच्छ की अनुज्ञा सौंप कर वे शासन प्रभावना करते-करते आत्म तत्त्व में विलीन हो गए।
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