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26. आचार्य श्रीमद् समुद्र सूरीश्वर जी
सवि जीव करूं शासनरसी, महावीर स्वप्न साकार।
सिद्धि सोपान समुद्र सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य समुद्र सूरि जी सूर्यवंशी क्षत्रिय, महाप्रतापी, तपस्वी, विद्वान एवं वादकुशल थे। वीर शासन के 26वें पट्टधर के रूप में उन्होंने शासन की विस्तृत प्रभावना की। ये शिलादित्य वंश में राउल जी के पुत्र राजा खुमाण के पुत्र थे। सिसोदिया वंश के नाम से वे प्रसिद्ध थे। जिनधर्म के सिद्धांतों से प्रभावित होकर उन्होंने जैनधर्म में दीक्षा स्वीकार की। चित्तौड़ का राणा इनका सांसारिक कुटुम्ब था, अतः इनकी प्रसिद्धि सर्वत्र हुई।
इनके समय में दिगम्बर आम्नाय की वृद्धि हो रही थी। वैराटनगर में शास्त्रार्थ में दिगम्बरों को पराजित कर उन्होंने श्वेताम्बर धर्म का फैलाव किया। नागहद नामक तीर्थ जहाँ पर दिगंबरों ने अपना एकछत्रीय आधिपत्य स्थापित कर लिया था, वहाँ पर भी आ. समुद्र सूरि जी ने भरसक प्रयत्न कर पुनः श्वेताम्बरों का अधिकार में कराया। ___ भैंसे और बकरे की बलि लेने वाली चामुंडा देवी को भी प्रतिबोध देकर मूक प्राणियों को अभयदान दिलाया एवं देवी को भी सम्यग्दृष्टि बनाया। बाड़मेर, कोटड़ा आदि अजैन प्रदेशों में भी विचरकर उन्होंने लोगों को जैनधर्म के प्रति आकर्षित किया एवं जोड़ा। तपस्या में भी समुद्र सूरि जी नितान्त एकाग्र रहते थे।
इनके काल में वड़नगर में आचार्य कालक सूरि द्वारा कल्पसूत्र को संघ के समक्ष पढ़ा गया। तथा आ. देवर्धिगणी क्षमाश्रमण, आ. सत्यमित्र सूरि, आ. भूतदिन्न सूरि जी इत्यादि शासन प्रभावक आचार्य भी हुए।
महावीर पाट परम्परा