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उस समय वाराणसी में राजा हर्षदेव का राज्य था। विद्वशिरोमणि हर्षदेव कविजनों का विशेष आदर करता था । चामत्कारिक विद्याओं के कारण मयूर कवि एवं बाण कवि का राजसभा में बहुत सम्मान था। राजा के ब्राह्मण वर्ग के प्रति झुकाव होने से जैन मंत्री ने राजाज्ञा से मानतुंग सूरि जी को राजसभा में आमंत्रित किया । किन्तु चामत्कारिक विद्याओं के प्रयोग से कोसों दूर चारित्रधारी मानतुंग सूरि जी ने राजा को भी मोक्ष मार्ग का उपदेश दे डाला! क्रोधि त होकर राजा हर्षदेव ने आदेश देकर राजसेवकों द्वारा मानतुंग सूरि जी को 44 लोह श्रृंखलाओं के तालों से बाँधकर अंधकारमय कोठरी में बंद कर दिया। आचार्य मानतुंग चामत्कारिक विद्याओं का प्रयोग नहीं करना चाहते थे किंतु जिनशासन प्रभावना के उद्देश्य को मध्य रख वे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी की स्तुति में लीन हुए। जैसे-जैसे वे श्लोक रचते गए, उनके 44 ता टूटते चले गए। सुबह के समय 44 तालों से मुक्त तेजस्वी सूर्य की भाँति तेजस्वी मुखमंडल के धनी आ. मानतुंग सूरि जी ने राज्यसभा में उपस्थित होकर सभी को आश्चर्यचकित किया। राजा ने उनके संयम से प्रभावित होकर जैनधर्म स्वीकार किया एवं वह स्तुति भक्तामर स्तोत्र के रूप में प्रचलित हुई जो आज भी नित्य रूप से बोली जाती है। -
भक्तामर स्तोत्र संस्कृत भाषा में रची हुई बहुत सुंदर स्तुति है । कई विद्वान इसे 48 गाथायुक्त कहते हैं, जिसमें प्रभु के 8 प्रातिहार्य युक्त श्लोकों को अतिरिक्त जोड़ा जाता है। आचार्य मानतुंग सूरि जी इतने ज्ञानी होने पर भी स्वयं को 'अल्पश्रुत' ही लिखते हैं, जो उनकी लघुता का परिचायक है। अंतिम गाथा में 'तं मानतुंगमवशा - समुपैति लक्ष्मीः ' शब्दों से भक्तामर के रचयिता का स्पष्ट दिग्दर्शन होता है।
एक बार मानतुंग सूरि जी अस्वस्थ हो गए। उन्होंने अनशन करने का विचार किया लेकिन तभी धरणेन्द्र देव ने प्रकट होकर 18 अक्षरों का एक मंत्र उन्हें दिया और कहा कि आपकी आयुष्य अभी लंबी है। आप अनशन न करें। उन मंत्राक्षरों के आधार पर प्राकृत में आचार्यश्री ने भयहर स्तोत्र की रचना की एवं रोगमुक्त हुए। आज वह स्तोत्र 'नमिऊण' के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है।
आत्म शुद्धि के लक्ष्य से परिपूर्ण उनका जीवन रहा । उनकी रचनाएं उनकी भौतिक सिद्धि का नहीं, अगाध आस्था का परिणाम था। विक्रम की 7वीं शताब्दी के वे प्रतिष्ठित विद्वान् थे।
महावीर पाट परम्परा
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